संयुक्त राष्ट्र महासभा का वार्षिक अधिवेशन हमेशा से कूटनीति और शक्ति-समीकरण का मंच रहा है। इस बार दिलचस्प बात यह है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ और सेनाध्यक्ष असीम मुनीर की अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से मुलाकात तय है। मुनीर पहले भी ट्रंप से लंच मीटिंग कर चुके हैं, इसलिए यह दोनों के बीच दूसरी सीधी भेंट होगी। पाकिस्तानी प्रतिष्ठान के लिए यह अवसर न केवल अमेरिका के साथ रिश्तों को “रीसेट” करने का होगा, बल्कि भारत-केन्द्रित अपनी रणनीति को भी नए सिरे से गढ़ने का प्रयास होगा।
मुनीर और शरीफ की ट्रंप से मुलाकात का सबसे बड़ा महत्व यह है कि पाकिस्तान अमेरिकी राजनीति में अपने लिए स्पेस तलाशना चाहता है। चीन पर बढ़ते अमेरिकी अविश्वास और पश्चिम एशिया की उथल-पुथल के बीच पाकिस्तान खुद को “महत्वपूर्ण सहयोगी” के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहा है। इसके अलावा, यह बैठक पाकिस्तानी सेना की पारंपरिक भूमिका— राजनीति और विदेश नीति दोनों में निर्णायक रहने को भी रेखांकित करती है।
इस बीच, पाकिस्तानी विदेश मंत्री इशाक डार के हालिया बयान ने एक अहम सच्चाई पर मुहर लगा दी है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि भारत-पाकिस्तान के बीच कोई भी मसला द्विपक्षीय है और भारत किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता स्वीकार नहीं करता। यह वही रुख है जिसे भारत दशकों से दोहराता रहा है। हम आपको याद दिला दें कि हाल ही में ट्रंप ने कई बार दावा किया था कि उन्होंने भारत-पाक के बीच युद्धविराम कराया, लेकिन अब पाकिस्तान स्वयं कह रहा है कि ऐसे दावों की कोई वास्तविकता नहीं है। दरअसल, यह भारत की कूटनीतिक दृढ़ता की जीत है और पाकिस्तान की मजबूरी का भी संकेत है।
दूसरी ओर, जैश-ए-मोहम्मद के कमांडर का यह स्वीकारना कि भारतीय मिसाइल हमलों में मसूद अजहर का परिवार “टुकड़े-टुकड़े” हो गया, भारत की सुरक्षा क्षमता और राजनीतिक इच्छाशक्ति का सीधा प्रमाण है। ऑपरेशन सिंदूर ने पाकिस्तान के भीतर आतंकी ढांचे को गहरी चोट पहुंचाई और आतंकी समूह अब खुलकर अपनी हानि स्वीकारने को मजबूर हैं। यह संदेश सिर्फ पाकिस्तान के भीतर नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को भी गया है कि भारत अब केवल रक्षात्मक राष्ट्र नहीं है, बल्कि निर्णायक और दंडात्मक कार्रवाई करने में सक्षम है।
देखा जाये तो इन घटनाओं के संयोजन से तीन स्पष्ट निष्कर्ष निकलते हैं— पहला, पाकिस्तान अमेरिका की शरण लेकर अपनी रणनीतिक प्रासंगिकता बनाए रखना चाहता है; दूसरा, भारत की यह स्थिति अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य है कि द्विपक्षीय मुद्दों में किसी तीसरे की गुंजाइश नहीं; और तीसरा, भारत की सैन्य कार्रवाई ने यह साबित कर दिया है कि आतंकवाद के ठिकाने अब कहीं भी सुरक्षित नहीं रहे। इन सबके बीच मोदी सरकार की नीति का मूल संदेश यही है कि भारत न तो तीसरे पक्ष के दबाव को स्वीकार करेगा और न ही आतंकवादियों को बख्शेगा।
-नीरज कुमार दुबे