इतिहास से टकराव के मूड़ में हैं चिदम्बरम या फिर सत्य की खोज में 'बोल' कर कांग्रेस को असहज कर रहे हैं?

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने एक बार फिर ऐसा वक्तव्य दे दिया है जिसने पार्टी नेतृत्व की पेशानी पर बल डाल दिए हैं। पहले 26/11 के मुंबई हमलों पर उनका खुलासा और अब ऑपरेशन ब्लू स्टार को “गलत रास्ता” बताने वाला बयान, दोनों ने कांग्रेस को असहज स्थिति में ला खड़ा किया है। सवाल यह है कि चिदंबरम आखिर लगातार ऐसे संवेदनशील विषयों पर क्यों बोल रहे हैं जो पार्टी की आधिकारिक लाइन से टकराते हैं? क्या यह बौद्धिक ईमानदारी का प्रदर्शन है या किसी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा?चिदंबरम का कहना है कि 1984 में स्वर्ण मंदिर पर सेना की कार्रवाई “गलत तरीका” थी और “इंदिरा गांधी ने उसकी कीमत अपने जीवन से चुकाई।” उन्होंने यह भी जोड़ा कि यह केवल प्रधानमंत्री का नहीं, बल्कि सेना, पुलिस, खुफिया तंत्र और सिविल प्रशासन— सबकी सामूहिक विफलता थी। सच कहें तो यह बयान कांग्रेस के उस ऐतिहासिक नैरेटिव को चुनौती देता है जिसके सहारे पार्टी तीन दशक से “राष्ट्रीय सुरक्षा की अपरिहार्यता” का तर्क देती आई है। इंदिरा गांधी के समय की राजनीतिक जटिलताओं और पंजाब के चरमपंथी दौर की पृष्ठभूमि में कांग्रेस ने हमेशा यह रेखांकित किया कि ब्लू स्टार “राष्ट्र की रक्षा” के लिए आवश्यक कदम था। ऐसे में चिदंबरम का “गलत रास्ता” कहना, पार्टी की नैतिक भूमि को हिला देता है।इसे भी पढ़ें: Chidambaram का कबूलनामा, ऑपरेशन ब्लू स्टार एक गलती थी, Indira Gandhi ने जान देकर चुकाई इसकी कीमतयह पहला अवसर नहीं जब चिदंबरम ने इस तरह की राजनीतिक असुविधा पैदा की हो। कुछ सप्ताह पहले उन्होंने खुलकर कहा था कि 26/11 के मुंबई आतंकी हमलों के बाद भारत ने “अंतरराष्ट्रीय दबाव” में आकर पाकिस्तान पर सैन्य कार्रवाई नहीं की थी। उन्होंने अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीज़ा राइस की उस सलाह का भी ज़िक्र किया जिसमें भारत को संयम बरतने को कहा गया था। इस बयान ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अवसर दिया कि वह कांग्रेस पर “विदेशी दबाव में झुकने” का आरोप दोहराएँ। नतीजा यह हुआ कि एक बार फिर कांग्रेस को अपने ही वरिष्ठ नेता के शब्दों का स्पष्टीकरण देने की नौबत आई।राजनीतिक दृष्टि से देखें तो दोनों बयान कांग्रेस के लिए दोहरा खतरा बनाते हैं। पहला, इससे विपक्ष को यह कहने का मौका मिलता है कि कांग्रेस के भीतर भी उसके अतीत और सुरक्षा नीति को लेकर असहमति है। दूसरा, इससे उन समुदायों और मतदाताओं में भ्रम पैदा होता है जो पहले से ही इन घटनाओं के कारण भावनात्मक रूप से संवेदनशील हैं। पंजाब में सिख भावनाएँ और राष्ट्रीय स्तर पर “राष्ट्रीय सुरक्षा” की छवि, दोनों ही कांग्रेस के लिए नाजुक क्षेत्र हैं। ऐसे में चिदंबरम की “आत्ममंथनकारी” टिप्पणियाँ पार्टी के लिए आत्मघाती भी साबित हो सकती हैं।पर सवाल यह भी है कि क्या किसी लोकतांत्रिक दल में वरिष्ठ नेता को इतिहास और नीति पर स्वतंत्र राय रखने का अधिकार नहीं होना चाहिए? निस्संदेह होना चाहिए, परंतु राजनीति में वक्त और सन्दर्भ का भी मूल्य होता है। जब पार्टी पहले से चुनावी दबाव में हो, जब उसके नेतृत्व पर एकरूपता बनाए रखने की चुनौती हो, तब इस तरह के बयान आत्मनिरीक्षण से अधिक आत्मघाती बन जाते हैं।चिदंबरम एक अनुभवी राजनेता हैं, विद्वान भी हैं। उनके विचार निश्चय ही अकादमिक विमर्श के स्तर पर मूल्यवान हो सकते हैं, पर जब वही विचार सार्वजनिक मंच से राजनीतिक आरोपों के बीच आते हैं, तो वह कांग्रेस के लिए बोझ बन जाते हैं। यही कारण है कि पार्टी नेतृत्व ने संकेत दिया है कि “यह आदत नहीं बननी चाहिए।”दरअसल, यह पूरा प्रसंग कांग्रेस के भीतर विचार और अनुशासन के पुराने द्वंद्व को उजागर करता है। क्या पार्टी अपने अतीत पर ईमानदारी से पुनर्मूल्यांकन करने को तैयार है, या हर सवाल को “असुविधाजनक बयान” कहकर टाल देगी? इतिहास से मुठभेड़ से बचने वाली पार्टियाँ अक्सर अपने वर्तमान में खो जाती हैं। लेकिन इतिहास से मुठभेड़ करते समय संवेदनशीलता और राजनीतिक विवेक दोनों आवश्यक हैं और यही संतुलन फिलहाल चिदंबरम के बयानों में अनुपस्थित दिखता है।कांग्रेस के लिए इस विवाद से सीख यही है कि आत्ममंथन का साहस रखे, लेकिन आत्मघात का नहीं। इतिहास पर ईमानदार चर्चा तभी फलदायी होती है जब वह संगठनात्मक रूप से तय सीमाओं में की जाए, न कि व्यक्तिगत बयानों से। चिदंबरम ने जो कहा, वह सैद्धांतिक रूप से गलत नहीं भी हो सकता— पर राजनीति में “सत्य” केवल तथ्य नहीं, प्रभाव भी होता है। और इस बार प्रभाव स्पष्ट है कि कांग्रेस असहज, विपक्ष उत्साहित और इतिहास फिर एक बार राजनीतिक बहस के केंद्र में है।-नीरज कुमार दुबे

Oct 14, 2025 - 20:05
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इतिहास से टकराव के मूड़ में हैं चिदम्बरम या फिर सत्य की खोज में 'बोल' कर कांग्रेस को असहज कर रहे हैं?
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने एक बार फिर ऐसा वक्तव्य दे दिया है जिसने पार्टी नेतृत्व की पेशानी पर बल डाल दिए हैं। पहले 26/11 के मुंबई हमलों पर उनका खुलासा और अब ऑपरेशन ब्लू स्टार को “गलत रास्ता” बताने वाला बयान, दोनों ने कांग्रेस को असहज स्थिति में ला खड़ा किया है। सवाल यह है कि चिदंबरम आखिर लगातार ऐसे संवेदनशील विषयों पर क्यों बोल रहे हैं जो पार्टी की आधिकारिक लाइन से टकराते हैं? क्या यह बौद्धिक ईमानदारी का प्रदर्शन है या किसी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा?

चिदंबरम का कहना है कि 1984 में स्वर्ण मंदिर पर सेना की कार्रवाई “गलत तरीका” थी और “इंदिरा गांधी ने उसकी कीमत अपने जीवन से चुकाई।” उन्होंने यह भी जोड़ा कि यह केवल प्रधानमंत्री का नहीं, बल्कि सेना, पुलिस, खुफिया तंत्र और सिविल प्रशासन— सबकी सामूहिक विफलता थी। सच कहें तो यह बयान कांग्रेस के उस ऐतिहासिक नैरेटिव को चुनौती देता है जिसके सहारे पार्टी तीन दशक से “राष्ट्रीय सुरक्षा की अपरिहार्यता” का तर्क देती आई है। इंदिरा गांधी के समय की राजनीतिक जटिलताओं और पंजाब के चरमपंथी दौर की पृष्ठभूमि में कांग्रेस ने हमेशा यह रेखांकित किया कि ब्लू स्टार “राष्ट्र की रक्षा” के लिए आवश्यक कदम था। ऐसे में चिदंबरम का “गलत रास्ता” कहना, पार्टी की नैतिक भूमि को हिला देता है।

इसे भी पढ़ें: Chidambaram का कबूलनामा, ऑपरेशन ब्लू स्टार एक गलती थी, Indira Gandhi ने जान देकर चुकाई इसकी कीमत

यह पहला अवसर नहीं जब चिदंबरम ने इस तरह की राजनीतिक असुविधा पैदा की हो। कुछ सप्ताह पहले उन्होंने खुलकर कहा था कि 26/11 के मुंबई आतंकी हमलों के बाद भारत ने “अंतरराष्ट्रीय दबाव” में आकर पाकिस्तान पर सैन्य कार्रवाई नहीं की थी। उन्होंने अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीज़ा राइस की उस सलाह का भी ज़िक्र किया जिसमें भारत को संयम बरतने को कहा गया था। इस बयान ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अवसर दिया कि वह कांग्रेस पर “विदेशी दबाव में झुकने” का आरोप दोहराएँ। नतीजा यह हुआ कि एक बार फिर कांग्रेस को अपने ही वरिष्ठ नेता के शब्दों का स्पष्टीकरण देने की नौबत आई।

राजनीतिक दृष्टि से देखें तो दोनों बयान कांग्रेस के लिए दोहरा खतरा बनाते हैं। पहला, इससे विपक्ष को यह कहने का मौका मिलता है कि कांग्रेस के भीतर भी उसके अतीत और सुरक्षा नीति को लेकर असहमति है। दूसरा, इससे उन समुदायों और मतदाताओं में भ्रम पैदा होता है जो पहले से ही इन घटनाओं के कारण भावनात्मक रूप से संवेदनशील हैं। पंजाब में सिख भावनाएँ और राष्ट्रीय स्तर पर “राष्ट्रीय सुरक्षा” की छवि, दोनों ही कांग्रेस के लिए नाजुक क्षेत्र हैं। ऐसे में चिदंबरम की “आत्ममंथनकारी” टिप्पणियाँ पार्टी के लिए आत्मघाती भी साबित हो सकती हैं।

पर सवाल यह भी है कि क्या किसी लोकतांत्रिक दल में वरिष्ठ नेता को इतिहास और नीति पर स्वतंत्र राय रखने का अधिकार नहीं होना चाहिए? निस्संदेह होना चाहिए, परंतु राजनीति में वक्त और सन्दर्भ का भी मूल्य होता है। जब पार्टी पहले से चुनावी दबाव में हो, जब उसके नेतृत्व पर एकरूपता बनाए रखने की चुनौती हो, तब इस तरह के बयान आत्मनिरीक्षण से अधिक आत्मघाती बन जाते हैं।

चिदंबरम एक अनुभवी राजनेता हैं, विद्वान भी हैं। उनके विचार निश्चय ही अकादमिक विमर्श के स्तर पर मूल्यवान हो सकते हैं, पर जब वही विचार सार्वजनिक मंच से राजनीतिक आरोपों के बीच आते हैं, तो वह कांग्रेस के लिए बोझ बन जाते हैं। यही कारण है कि पार्टी नेतृत्व ने संकेत दिया है कि “यह आदत नहीं बननी चाहिए।”

दरअसल, यह पूरा प्रसंग कांग्रेस के भीतर विचार और अनुशासन के पुराने द्वंद्व को उजागर करता है। क्या पार्टी अपने अतीत पर ईमानदारी से पुनर्मूल्यांकन करने को तैयार है, या हर सवाल को “असुविधाजनक बयान” कहकर टाल देगी? इतिहास से मुठभेड़ से बचने वाली पार्टियाँ अक्सर अपने वर्तमान में खो जाती हैं। लेकिन इतिहास से मुठभेड़ करते समय संवेदनशीलता और राजनीतिक विवेक दोनों आवश्यक हैं और यही संतुलन फिलहाल चिदंबरम के बयानों में अनुपस्थित दिखता है।

कांग्रेस के लिए इस विवाद से सीख यही है कि आत्ममंथन का साहस रखे, लेकिन आत्मघात का नहीं। इतिहास पर ईमानदार चर्चा तभी फलदायी होती है जब वह संगठनात्मक रूप से तय सीमाओं में की जाए, न कि व्यक्तिगत बयानों से। चिदंबरम ने जो कहा, वह सैद्धांतिक रूप से गलत नहीं भी हो सकता— पर राजनीति में “सत्य” केवल तथ्य नहीं, प्रभाव भी होता है। और इस बार प्रभाव स्पष्ट है कि कांग्रेस असहज, विपक्ष उत्साहित और इतिहास फिर एक बार राजनीतिक बहस के केंद्र में है।

-नीरज कुमार दुबे