अफगानिस्तान के तालिबान प्रशासन के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी का भारत में दिया गया वक्तव्य दक्षिण एशिया की कूटनीतिक परतों में नई हलचल पैदा कर गया है। उन्होंने दिल्ली में आयोजित FICCI की बैठक में कहा कि “अफगान लड़ाकू हैं, लेकिन वे उतने ही भरोसेमंद दोस्त भी हैं।” यह बयान सिर्फ व्यापारिक आमंत्रण नहीं, बल्कि तालिबान शासन की अंतरराष्ट्रीय छवि सुधारने की कोशिश भी प्रतीत होता है।
मुत्ताकी ने भारत-अफगानिस्तान के बीच बेहतर संपर्क, वीज़ा व्यवस्था में सहजता और व्यापारिक सहयोग की बात की। विशेष रूप से उन्होंने भारतीय दवा उद्योग को अफगानिस्तान में उत्पादन इकाइयाँ स्थापित करने का निमंत्रण दिया। यह एक ऐसा विचार है जो दोनों देशों के लिए आर्थिक दृष्टि से लाभकारी हो सकता है। अफगानिस्तान ने लंबे संघर्ष के बाद अब स्थिरता का दावा किया है और मुत्ताकी ने भरोसा दिलाया कि भारतीय निवेशकों के लिए वहाँ “शांतिपूर्ण माहौल” सुनिश्चित किया जाएगा।
हालाँकि, इन प्रस्तावों के पीछे छिपी जटिलताएँ भी कम नहीं हैं। तालिबान सरकार को अभी तक अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त नहीं है और महिलाओं व अल्पसंख्यकों के अधिकारों को लेकर गंभीर प्रश्न बने हुए हैं। भारत के लिए यह संतुलन साधने का समय है— एक ओर मानवीय और व्यापारिक सहयोग की संभावनाएँ हैं, तो दूसरी ओर सुरक्षा और वैचारिक सतर्कता की आवश्यकता। दिल्ली, मुंबई और अमृतसर से काबुल व कंधार के बीच एयर फ्रेट कॉरिडोर का उद्घाटन तथा चाबहार बंदरगाह के माध्यम से संपर्क बढ़ाने की चर्चा, भारत के लिए मध्य एशिया तक पहुँच का रणनीतिक अवसर बन सकती है। लेकिन यह सब तभी स्थायी होगा जब अफगानिस्तान के भीतर राजनीतिक स्थिरता और समावेशी शासन की दिशा में ठोस कदम उठें।
भारत की भूमिका इस समय “सहयोगी मित्र” और “सावधान पर्यवेक्षक” दोनों की है। मुत्ताकी का यह संदेश निश्चित रूप से संवाद की खिड़की खोलता है, पर इतिहास यह सिखाता है कि अफगानिस्तान की राजनीति में भरोसे के साथ-साथ विवेक का प्रयोग भी अनिवार्य है। भारत को इस नई “दोस्ती” का स्वागत खुले मन से करना चाहिए, पर आँख मूँदकर नहीं।