अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से बुसान में हुई अपनी मुलाकात को “G2 शिखर सम्मेलन” कहा। यह शब्द भले ही सुनने में मात्र एक राजनीतिक विशेषण लगे, परंतु इसके पीछे छिपा सामरिक संकेत बहुत गहरा है। “जी2” — अर्थात Group of Two की अवधारणा एक बार फिर विश्व राजनीति के केंद्र में है और इसके निहितार्थ न केवल वाशिंगटन व बीजिंग के बीच, बल्कि नई दिल्ली सहित समूचे वैश्विक दक्षिण के लिए भी दूरगामी हैं।
हम आपको बता दें कि “जी2” शब्दावली की जड़ें 2000 के दशक के उत्तरार्ध में मिलती हैं, जब अमेरिकी अर्थशास्त्री सी. फ्रेड बर्गस्टन और रणनीतिकार ज़्बिगन्यू ब्रज़ेज़िंस्की ने प्रस्ताव रखा था कि अमेरिका और चीन मिलकर वैश्विक शासन को दिशा दें। उस समय यह विचार आर्थिक संकटों, जलवायु परिवर्तन और वित्तीय स्थिरता जैसी चुनौतियों के समाधान हेतु एक साझा नेतृत्व की संभावना के रूप में देखा गया था।
बराक ओबामा प्रशासन के दौरान यह अवधारणा कुछ समय के लिए जीवंत रही, जब अमेरिका ने चीन को “responsible stakeholder” के रूप में जोड़ने का प्रयास किया। परंतु शीघ्र ही यह धारणा ठंडी पड़ गई—एक ओर चीन को इसमें पश्चिमी एजेंडा का छिपा दबाव दिखा, वहीं अमेरिका को चीन की तीव्र प्रगति से अपनी प्रधानता पर संकट। ट्रंप के पहले कार्यकाल में तो यह विचार लगभग दफन हो गया, क्योंकि उनका झुकाव “डिकपलिंग” और व्यापार युद्ध की दिशा में था।
इस पृष्ठभूमि में, ट्रंप का 2025 में पुनः “जी2” का उल्लेख करना केवल भाषाई शिष्टाचार नहीं है। यह अमेरिका की रणनीतिक सोच में एक नई यथार्थवादी स्वीकृति का संकेत है कि चीन अब न तो दबाया जा सकता है, न ही नज़रअंदाज़ किया जा सकता है।
देखा जाये तो ट्रंप का यह नया रुख अमेरिकी आंतरिक राजनीति से भी जुड़ा है। 2026 के मध्यावधि चुनावों की आहट के बीच, चीन के साथ टकराव से उत्पन्न आर्थिक दबावों को कम करना उनके लिए आवश्यक हो गया है। चीन से दुर्लभ धातुओं की आपूर्ति, अमेरिकी किसानों के लिए सोयाबीन के निर्यात समझौते और फेंटेनाइल से जुड़े विवादों का सुलझना, ये सभी घरेलू सन्देश के रूप में प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
परंतु सामरिक दृष्टि से यह “जी2” टिप्पणी अमेरिका की अनकही स्वीकृति है कि अब वैश्विक शक्ति-संतुलन द्विध्रुवीय संरचना की ओर बढ़ रहा है। वाशिंगटन ने शीत युद्ध 2.0 की धारणा से धीरे-धीरे यथार्थवाद की ओर कदम बढ़ाया है— जहाँ चीन के साथ टकराव के साथ-साथ सीमित सहयोग की गुंजाइश भी तलाशनी होगी।
उधर, बीजिंग ने ट्रंप की “जी2” शब्दावली को औपचारिक रूप से अपनाया नहीं, बल्कि उसे “बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था” की दिशा में एक अवसर के रूप में प्रस्तुत किया। शी जिनपिंग की “shared future for mankind” की परिकल्पना इस बात पर बल देती है कि वैश्विक शासन किसी दो देशों की साझी सत्ता से नहीं, बल्कि सभी राष्ट्रों की सहभागी भूमिका से संचालित होना चाहिए।
परंतु विश्लेषकों का कहना है कि चीन का यह बहुध्रुवीयवाद वस्तुतः चीनी-प्रेरित व्यवस्था की ओर अग्रसर है, जहाँ आर्थिक निर्भरता और प्रौद्योगिकी नियंत्रण के माध्यम से वह वैश्विक मंचों पर निर्णायक प्रभाव स्थापित कर रहा है। चीन के लिए “जी2” का प्रत्यक्ष स्वीकार उसके वैचारिक विमर्श से मेल नहीं खाता, पर अप्रत्यक्ष रूप से वह इसे एक सामरिक सम्मान के रूप में देखता है— जिससे अमेरिका उसे बराबरी की शक्ति के रूप में मान्यता देता है।
वहीं भारत के लिए ट्रंप की “जी2” टिप्पणी एक दोधारी तलवार है। एक ओर यह संकेत देती है कि अमेरिका और चीन, भले प्रतिस्पर्धी हों, लेकिन वैश्विक निर्णय-निर्माण में संवाद और सहयोग की अनिवार्यता को समझने लगे हैं। इससे भारत जैसे उभरते शक्ति केंद्रों की भूमिका अस्थायी रूप से पृष्ठभूमि में जा सकती है।
दूसरी ओर, यह भारत के लिए एक strategic opening भी है। यदि अमेरिका और चीन अपने हित-संतुलन में व्यस्त हैं, तो भारत “Global South” के नेतृत्व का दावा और अधिक आत्मविश्वास से कर सकता है। भारत को अब यह सिद्ध करना होगा कि दुनिया केवल दो ध्रुवों के इर्द-गिर्द नहीं घूमती—नई दिल्ली, ब्रासीलिया, जोहान्सबर्ग और जकार्ता भी अब शक्ति समीकरण का हिस्सा हैं।
हालाँकि सावधानी की भी आवश्यकता है। यदि “जी2” की पुनरावृत्ति वाकई किसी संरचित रूप में होती है—जैसे आर्थिक नीतियों, व्यापार नियमों या प्रौद्योगिकीय मानकों में—तो भारत को अपनी स्वतंत्र नीति-निर्माण क्षमता बनाए रखने के लिए अधिक सक्रिय कूटनीतिक संतुलन साधना होगा। “क्वॉड”, “आई2यू2” और “इंडो-पैसिफिक” जैसी पहलों का उद्देश्य तभी सार्थक रहेगा जब भारत इस द्विध्रुवीय पुनर्संरचना के बीच अपनी विशिष्टता कायम रखे।
बहरहाल, ट्रंप का “जी2” उच्चारण केवल एक ट्वीट या भाषण का हिस्सा नहीं, बल्कि बदलती विश्व व्यवस्था की झलक है। यह यथार्थ का स्वीकार है कि 21वीं सदी का शक्ति-संतुलन न तो एकध्रुवीय रह सकता है, न पूर्ण बहुध्रुवीय, बल्कि एक प्रबंधित द्विध्रुवीयता की दिशा में बढ़ रहा है। ट्रंप की “जी2” टिप्पणी इतिहास के पन्नों में चाहे एक वाक्य मात्र हो, पर इसकी सामरिक प्रतिध्वनि दीर्घकालीन होगी क्योंकि यह हमें याद दिलाती है कि शक्ति-संतुलन की राजनीति में शब्द भी हथियार होते हैं, और इस बार यह हथियार दो हाथों में नहीं, कई हाथों में है।
-नीरज कुमार दुबे