जून के महीने की बात है अमेरिका का व्हाइट हाउस जहां पर खुद को दुनिया का सबसे शक्तिशाली मुल्क कहने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप और दुनिया के सबसे पिछड़े मुल्क पाकिस्तान के फील्ड मार्शल आसिम मनीर के बीच लंच पर चर्चा होती है। वैसे तो ये कोई असामान्य बात नहीं थी कि ट्रंप ने मुनीर को लंच पर बुलाया। बल्कि खास बात ये थी कि जनरल आसिम मुनीर को ट्रंप ने अकेले व्हाइट हाउस में आमंत्रित किया और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ उनके साथ मौजूद नहीं रहे। अगर देखा जाए तो एक राष्ट्रध्यक्ष दूसरे राष्ट्रध्यक्ष को मिलने के लिए बुलाता है। लेकिन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की जगह सेना प्रमुख को लंच पर बुलाते हैं। इससे ये एक बार फिर साफ हुआ कि पाकिस्तान में असल में जनरल आसिम मुनीर की सरकार चल रही है।
1947 में पाकिस्तानी सेना
पाकिस्तान में सेना एक सैन्य संस्था से कहीं बढ़कर है। यह राज्य के भीतर अपने आप में पूरी की पूरी मशीनरी है। राजनीति, अर्थव्यवस्था और विदेश नीति की सारी की सारी रणनीति को रावलपिंडी के सैन्य मुख्यालय से ही कमांड मिलता है। 1947 में देश के निर्माण के बाद से सेना ने बार-बार शासन में हस्तक्षेप किया है। पाकिस्तान के अस्तित्व की संरक्षक होने के दावे के साथ अपने जूतों तले आवाम द्वारा चुनी गई सरकारों को कुचला है। इस प्रभाव की जड़ें पाकिस्तान के शुरुआती राजनीतिक इतिहास में निहित हैं। आज़ादी के बाद के पहले दशक में, नागरिक सरकारें कमज़ोर संस्थाओं से जूझती रहीं, जिससे एक ऐसा शून्य पैदा हुआ जिसे भरने के लिए सेना सक्षम थी। 1958 में जनरल अयूब ख़ान के नेतृत्व में हुए पहले तख्तापलट ने सेना को एक केंद्रीय राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित किया। दशकों बाद, जनरल ज़िया-उल-हक और परवेज़ मुशर्रफ़ के हस्तक्षेपों ने इस प्रवृत्ति को और मज़बूत किया, जिससे पता चला कि नागरिक सत्ता का रिमोट कंट्रोल सेना के पास ही होता है।
जिन्ना ने पाकिस्तानी सेना पर क्या कहा?
पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना ने सेना की सर्वोच्चता की कल्पना नहीं की थी। 1948 में आर्मी स्टाफ कॉलेज, क्वेटा में एक भाषण में जिन्ना ने कहा था कि यह मत भूलो कि सशस्त्र बल लोगों के सेवक हैं। आप राष्ट्रीय नीति नहीं बनाते। यह हम नागरिक हैं, जो इन मुद्दों को तय करते हैं और यह आपका कर्तव्य है कि इन कार्यों को पूरा करें जो आपको सौंपे गए हैं। पाकिस्तान की सेना ने ठीक इसके विपरीत काम किया है। 2022 में पूर्व सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा ने स्पष्ट कहा था कि सेना ने राजनीति में असंवैधानिक रूप से हस्तक्षेप किया है। पाकिस्तानी अखबार डॉन ने उस समय लिखा था कि राजनीति में सेना का हस्तक्षेप व्यापक रहा है और तख्तापलट के माध्यम से नागरिक सरकारों को हटाने से लेकर परोक्ष रूप से कमजोर व्यवस्थाओं को नियंत्रित करने तक तक पहुंच गया है, और यह कि राजनीतिक नेताओं ने बहुत आसानी से सेना को जगह दे दी है उनकी कमजोरियों के कारण संस्थागत सीमाओं का उल्लंघन हो रहा है।
सेना और लोगों के बीच संबंध
अपनी पुस्तक 'द आर्मी एंड द डेमोक्रेसी' में पाकिस्तानी अकादमिक अकील शाह ने लिखा कि लोकतंत्र में सेना कानून के शासन से ऊपर नहीं हो सकतीं। हालाँकि, पाकिस्तानी सेना नागरिक कानूनी प्रणाली के दायरे से बाहर दण्ड से मुक्ति के साथ काम करती है क्योंकि वह खुद को कानून से ऊपर मानती है। समय के साथ सेना की भूमिका विकसित हुई है। 2007-2008 में सेना ने शासन विरोधी प्रदर्शनों के कारण खुद को सत्ता से बाहर कर लिया। 008 के बाद से जनरलों ने राजनीतिक लोकतंत्र को सहन किया है क्योंकि प्रत्यक्ष सैन्य शासन को सेना की छवि और हितों के विपरीत देखा गया है।