बिहार के कुटुम्बा में चुनावी रैली के दौरान कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने मंगलवार को एक ऐसा बयान दे दिया जिसने पूरे देश में राजनीतिक हलचल मचा दी है। उन्होंने कहा कि “अगर आप ध्यान से देखेंगे तो देश की 90% आबादी दलित, महादलित, पिछड़ी, अति पिछड़ी, आदिवासी और अल्पसंख्यक वर्गों से आती है। मगर सारे पद, कंपनियां, नौकरियाँ, यहाँ तक कि सेना भी 10% लोगों के नियंत्रण में है।” सेना को राजनीति में घसीटे जाने पर राहुल गांधी के खिलाफ देशभर में तीव्र प्रतिक्रिया देखी जा रही है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इस मुद्दे पर राहुल गांधी को घेरते हुए कहा है कि भारतीय सेना का कोई धर्म या जाति नहीं होती। हमारे सैनिकों का एक ही धर्म है— सैन्य धर्म। उन्होंने कहा कि सेना को राजनीति में घसीटना राष्ट्र के साथ अन्याय है। चौंकाने वाली बात यह है कि पूर्व विदेश मंत्री और विपक्षी खेमे के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने भी राहुल गांधी के बयान पर असहमति जताई है। उन्होंने एक्स (X) पर लिखा कि “मैं निराश हूं कि राहुल गांधी ने भारतीय सेना को जाति की बहस में घसीटा। सेना की एकमात्र जाति है— देशभक्ति, साहस और बलिदान।”
वैसे यह पहली बार नहीं है जब राहुल गांधी ने सेना पर टिप्पणी कर विवाद पैदा किया हो। 2023 में ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान उन्होंने कहा था कि “चीन की सेना अरुणाचल में भारतीय सैनिकों को पीट रही है।” उस समय सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें फटकार लगाते हुए कहा था कि “यदि आप सच्चे भारतीय हैं, तो ऐसी बातें नहीं कहेंगे।”
वैसे राहुल गांधी के ताज़ा बयान ने एक बार फिर यह प्रश्न उठाया है कि आखिर क्यों वह बार-बार भारतीय सेना जैसे पवित्र, गैर-राजनीतिक और राष्ट्रीय संस्थान को अपने चुनावी भाषणों में घसीटते हैं। सवाल उठता है कि क्या यह अनजाने में कही गई बात थी, या फिर चुनावी गणित का जानबूझकर बुना गया जाल? सच्चाई यह है कि यह टिप्पणी न तो आकस्मिक थी, न ही मासूम। यह एक सुनियोजित राजनीतिक रणनीति का हिस्सा थी, जहाँ जाति को हथियार बनाकर हर संस्थान की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगाया जा सके।
देखा जाये तो भारतीय सेना उस विरल संस्था में से है जिसने सात दशक से भी अधिक समय से भारतीय समाज की विविधता को एकता में पिरोया है। वहाँ धर्म, भाषा, जाति या प्रांत नहीं, बल्कि एक ही पहचान चलती है— भारतीय सैनिक की। इस संस्था की रीढ़ “इकाई भावना” है, जहाँ सैनिक एक-दूसरे के लिए मर मिटने को तैयार रहते हैं। ऐसे में राहुल गांधी द्वारा यह कहना कि सेना “10% लोगों के नियंत्रण में” है, न केवल तथ्यहीन है, बल्कि सैनिकों की गरिमा को ठेस पहुँचाने वाला है। सेना को इस प्रकार विभाजित दृष्टि से देखना उस एकता पर हमला है जिसे हमारे जवान सरहद पर अपने रक्त से सींचते हैं। यह महज “राजनीतिक बयान” नहीं, यह राष्ट्रीय नैतिकता पर प्रहार है।
राहुल गांधी भलीभांति जानते हैं कि बिहार और उत्तर भारत के कई हिस्सों में जातीय समीकरण ही चुनावी परिणाम तय करते हैं। कांग्रेस लंबे समय से इन राज्यों में हाशिये पर है। ऐसे में “90 बनाम 10 प्रतिशत” का नारा उनकी चुनावी रणनीति का नया तीर है— एक ऐसा तीर जो जातीय पीड़ा को राजनीतिक लाभ में बदल सके। परन्तु समस्या यह है कि इस बयान में जातीय आँकड़ों की बात नहीं, बल्कि संवैधानिक संस्थाओं पर अविश्वास की झलक है। राहुल गांधी ने कहा कि न्यायपालिका, नौकरशाही, उद्योग और सेना, सब कुछ “10% के नियंत्रण में” है। यानी उन्होंने एक ही झटके में चारों स्तंभों की विश्वसनीयता पर संदेह जता दिया। यह न केवल असंवेदनशील है, बल्कि लोकतंत्र की नींव हिलाने जैसा है।
दूसरी ओर, यह पहली बार है जब किसी विपक्षी नेता ने भी खुलकर राहुल गांधी की आलोचना की है। यशवंत सिन्हा, जो कभी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के स्तंभ रहे और बाद में मोदी सरकार के आलोचक बने, उन्होंने भी राहुल गांधी की टिप्पणी को “अस्वीकार्य” बताया है। देखा जाये तो जब विपक्ष के भीतर से भी आवाज़ उठे कि “सेना को राजनीति में मत लाओ”, तो यह बताता है कि राहुल गांधी का बयान केवल भाजपा बनाम कांग्रेस की बहस नहीं रहा, यह राष्ट्र बनाम संकीर्ण राजनीति की रेखा तक पहुँच चुका है।
यहां एक सवाल यह भी उठता है कि भारतीय सेना पर बार-बार हमले क्यों किये जा रहे हैं? देखा जाये तो राहुल गांधी के राजनीतिक वक्तव्यों का पैटर्न अब स्पष्ट दिखता है। 2016 में उन्होंने सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठाए। 2019 में उन्होंने एयर स्ट्राइक के सबूत माँगे। 2023 में उन्होंने कहा कि “चीनी सैनिक हमारे जवानों को पीट रहे हैं।” और अब 2025 में राहुल गांधी ने कहा कि “सेना 10% के नियंत्रण में है।” यह निरंतरता किसी राजनीतिक रणनीति की विफलता से अधिक, एक मानसिक ढर्रे को दर्शाती है, जहाँ वह हर राष्ट्रीय संस्था को सत्तारुढ़ दल के प्रभाव में दिखाकर स्वयं को “सत्य के एकमात्र वाहक” के रूप में पेश करना चाहते हैं। पर यह रणनीति उलटी पड़ रही है। क्योंकि आम भारतीय अपने सैनिकों पर विश्वास किसी पार्टी या नेता के कारण नहीं बल्कि उनके सेवा, समर्पण और बलिदान के कारण करता है।
राहुल गांधी को समझना होगा कि सेना में भर्ती पूरी तरह मेरिट और नियमों पर आधारित होती है। यदि इसे भी जातीय कोटे की दृष्टि से देखना शुरू कर दिया जाए, तो यह संस्था अपनी सामूहिकता खो देगी। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने ठीक ही कहा है कि हम पिछड़ों और गरीबों के लिए आरक्षण का समर्थन करते हैं, पर सेना को जाति के चश्मे से नहीं देखा जा सकता। देखा जाये तो सेना में आरक्षण की माँग या जातीय गणना की सोच, दरअसल, अनुशासन और एकता के उस ताने-बाने को तोड़ देगी जो युद्ध के मैदान में सबसे बड़ा अस्त्र होता है।
विडंबना यह है कि राहुल गांधी स्वयं उस राजनीतिक परिवार से आते हैं जिसने देश पर सबसे लंबे समय तक शासन किया। अगर वाकई “10% लोग” सब कुछ नियंत्रित कर रहे हैं, तो यह नियंत्रण किसके समय में बना? उनके परदादा, दादी, पिता, सभी दशकों तक सत्ता में रहे। ऐसे में यह बयान अपने ही वंश की नीतियों पर प्रश्नचिह्न नहीं, तो और क्या है? इसके अलावा, हर चुनाव से पहले कोई विवादास्पद बयान देकर खुद को “सिस्टम के खिलाफ क्रांतिकारी” साबित करने की राहुल गांधी की आदत अब एक नियमित तमाशा बन चुकी है।
बहरहाल, राहुल गांधी का ताज़ा बयान केवल एक भाषण नहीं था; यह एक राजनीतिक मनोवृत्ति का प्रतिबिंब था— वह मनोवृत्ति जो सत्ता की तलाश में राष्ट्र की मर्यादा तक गिराने को तैयार है। सेना को जातीय तराजू पर तौलना न केवल सैनिकों का अपमान है, बल्कि उस एकता पर भी वार है जो भारत को भारत बनाती है। सत्ता की राजनीति में जीत-हार सामान्य बात है, पर जब कोई नेता चुनावी लाभ के लिए सैनिकों की निष्ठा और संस्थाओं की ईमानदारी पर प्रश्न उठाता है, तो वह केवल सरकार का नहीं, देश का विरोधी बन जाता है। राहुल गांधी की “10 प्रतिशत बनाम 90 प्रतिशत” वाली राजनीति दर्शाती है कि वह एक ऐसे नेता हैं जो बात समानता की करते हैं लेकिन बीज विभाजन के बोते हैं। राहुल गांधी शायद भूल गए हैं कि भारत की सेना किसी जाति, भाषा या धर्म की नहीं, भारत की सेना है। और भारत की सेना को राजनीति में घसीटने की सजा भारतीय मतदाता चुनावों में जरूर देते हैं।
-नीरज कुमार दुबे