50 वर्ष पूर्व 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। पूरा देश इस फैसले से भौंचक रह गया। भारतीय इतिहास में लोकतंत्र का काला दिन था। आपातकाल लगाया गया, जो मार्च 1977 तक चला। इस दौरान भारत में लोकतंत्र लगभग खत्म कर दिया गया और एक तानाशाही शासन की शुरुआत इस दौरान नागरिक अधिकारों का बड़े पैमाने पर हनन हुआ था।
इंदिरा गांधी की सरकार ने अपने राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया, मीडिया की आजादी छीन ली, लोगों के मौलिक अधिकारों को रौंदा, मानवाधिकारों का उल्लंघन किया और आम नागरिकों को बेरहमी से प्रताड़ित किया गया और हत्या तक की गई। इस दौर में संविधान को भी कमजोर किया गया। हालांकि, आपातकाल का हर पहलू चौंकाने वाला था, लेकिन खासकर छात्रों पर किए गए अत्याचार बेहद निंदनीय थे। सब कुछ सिर्फ एक परिवार की तानाशाही को बरकरार रखने के लिए।
पहली बार ऐसा मौका था जब देश में अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा की गई थी। लोगों को आपातकाल के मतलब भी नहीं पता था। आपातकाल की घोषणा के साथ ही आम जनता के सभी मौलिक अधिकार छीन लिए गए थे। किसी तरह की अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार ही नहीं, लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया था। आम जनता, मीडिया समूह, रेडियो, और अन्य प्रचार के माध्यमों पर पूरी पाबंदी लगा दी गई थी। आपातकाल की घोषणा के कुछ घंटे के भीतर की प्रमुख समाचार पत्रों के कार्यालयों में बिजली की आपूर्ति काट दी गई थी।
आपातकाल की सूचना के बाद से ही देश में ढूंढ-ढूंढ कर विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारियों का दौर शुरू हो गया था। तत्कालीन समय के बड़े नेता जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नांडिस को जेल में डाल दिया गया। विपक्षी नेताओं के साथ साथ समाज में प्रभाव रखने वाले कांग्रेस के विपरीत विचारधारा वाले सभी लोगों और आम जनता में बेगुनाहों को भी जेल में भर दिया गया था, जेलों में जगह नहीं बची थी। करीब 1,40,000 लोगों आपातकाल में बिना किसी सुनवाई के राजनीतिक बंदी बनाया गया।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि आपातकाल के दौरान पूरे देश का नियंत्रण गांधी-नेहरू परिवार के हाथ में था। कांग्रेस ने आपातकाल की आड़ में वो सभी काम किए जो ना सिर्फ राजनीतिक लिहाज से अशोभनीय थे बल्कि अमानवीय भी थे। प्रेस में सरकार या आपातकाल की आलोचना करना अपराध की श्रेणी में आ चुका था। प्रेस-मीडिया पर भी सेंसरशिप लगा दी गई थी। हर अखबार में सेंसर अधिकारी तैनात किया गया था। हालात यह थे कि कांग्रेस समर्थित उस अधिकारी के अनुमति के बाद ही कोई समाचार छप सकता था। सरकार विरोधी समाचार छापने पर बिना किसी सुनवाई के गिरफ्तारी हो रही थी।
यही नहीं, कांग्रेस का विरोध करने वाले 26 संगठनों पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। 4 जुलाई 1975 को राष्ट्रीय विचार और भारतीयता के लिए काम करने वाले संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। आपातकाल के मुखर आलोचक रहे फिल्मी कलाकारों को भी इसका दंश झेलना पड़ा। किशोर कुमार के गानों को रेडियो और दूरदर्शन पर बजाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। देव आनंद को भी अनौपचारिक प्रतिबंध का सामना करना पड़ा था।
देश में आपातकाल लागू होने के बाद कई त्रासद घटनाएं हुईं। दिल्ली का तुर्कमान गेट कांड भी इनमें एक था। मुस्लिम बहुल उस इलाके को संजय गांधी ने दिल्ली के सौंदर्यीकरण के नाम पर खाली करा दिया। यह काम लोगों की सहमति से नहीं, बल्कि जबरन किया गया गया। बुल्डोजर से लोगों के घर ढहाए गए। जिन्होंने विरोध किया, उन्हें जेलों में ठूंस दिया गया। विरोध के दौरान पुलिस ने लाठियां बरसाईं और आंसू गैस के गोले छोड़े। पुलिस ने गोलियां भी चलाईं। चार लोगों की जान चली गई।
संजय गांधी की सनक के चलते सड़क से भिखारियों, झोपड़पट्टी के लोगों और राहगीरों को पकड़ कर जबरन नसबंदी के टार्गेट पूरे किए जाने लगे। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में 18 अक्टूबर 1976 को नसबंदी अभियान का विरोध कर रहे आंदोलनकारियों पर पुलिस ने सीधी फायरिंग कर दी थी। जिसमें 42 बेगुनाहों की मौत हो गई थी। मृतकों की स्मृति में यहां शहीद चौक बना हुआ है। एक रिपोर्ट के मुताबिक इमरजेंसी के दौरान देशभर में 1 करोड़ 10 लाख से ज्यादा लोगों की नसबंदी कर दी गई थी।
21 महीने के बाद जयप्रकाश का आंदोलन निर्णायक मुकाम तक जा पहुंचा। इंदिरा गांधी को सिंहासन छोड़ना पड़ा। मोरारजी देसाई की सरकार ने 28 मई 1977 में आपातकाल के दौरान हुए ज्यादतियों को जानने के लिए जस्टिस जे सी शाह की अध्यक्षता में शाह कमीशन गठित किया। शाह आयोग ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट किया था कि जिस वक्त आपातकाल की घोषणा की गई उस वक्त ना देश में आर्थिक हालात खराब थे और ना ही कानून व्यवस्था में किसी तरह की कोई अड़चन थी। इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल अपनी इच्छा के अनुसार लगाया था और इस संबंध में उन्होंने अपने पार्टी के कुछ लोगों को छोड़कर किसी भी सहयोगी से कोई विमर्श नहीं किया था।
आपातकाल में गिरफ्तार किए गए अधिकतर सम्मानित और बुजुर्ग नेताओं को चिकित्सा सुविधा की आवश्यकता थी, जो उन्हें अस्पताल में मौजूद नहीं कराई गई। इंदिरा गांधी की तानाशाही का एक नमूना इस बात से भी पता चलता है कि शाह आयोग ने नसबंदी कार्यक्रम पर सरकार के रवैए की बेहद आलोचना की थी। आयोग ने कहा था कि पटरी पर रहने वाले और भिखारियों की जबरदस्ती नसबंदी की गई इसके साथ-ऑटो रिक्शा चालकों के ड्राइविंग लाइसेंस के नवीनीकरण के लिए नसबंदी सर्टिफिकेट दिखाना अनिवार्य कर दिया गया था। आयोग ने यह स्पष्ट रूप से माना था कि सरकारी तंत्र का उपयोग कर कुछ लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए इस पूरे आपातकाल का इस्तेमाल किया गया।
जनवरी 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान यह स्वीकार किया कि वर्ष 1975 में आपातकाल के समय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ था। तत्कालीन अटॉर्नी जनरल नीरेन डे ने तब सुप्रीम कोर्ट में यह कबूल किया था कि जीने का अधिकार स्थगित है। आपातकाल के दौरान प्रेस की स्थिति को लेकर एक श्वेत पत्र 1 अगस्त 1977 में संसद में पेश किया गया। सत्या सी पेज के श्वेत पत्र से यह स्पष्ट हुआ कि तानाशाही की इच्छा रखने वाली इंदिरा गांधी ने अपनी अध्यक्षता में तय किया था कि प्रेस काउंसिल को भंग कर दिया जाए और तत्कालीन चारों समाचार एजेंसियों को मिलाकर एक कर दिया जाए, जिससे उन्हें सेंसर करने और संभालने में आसानी होगी।
राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी के जो नेता पिछले कुछ समय अक्सर लोकतंत्र बचाने की बात कर रहे हैं। संसद से सड़क तक वे संविधान की किताब लेकर घूमते हैं, उन्हें याद दिलाना जरूरी है कि उनकी पार्टी के नेता ने दादागिरी करके इस देश पर 21 महीने आपातकाल लगाकर लोगों को जेल में ठूंस दिया था। असल में, 1975 में लगाया हुआ आपातकाल इंदिरा गांधी की गलती नहीं थी, बल्कि इंदिरा गांधी का "अहंकार" था। दिसंबर 2024 को सदन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आपातकाल का उल्लेख किया और कहा, ‘‘दुनिया में जब भी लोकतंत्र की चर्चा होगी तो कांग्रेस के माथे से कभी यह कलंक मिट नहीं सकेगा क्योंकि लोकतंत्र का गला घोंट दिया गया था। भारतीय संविधान निर्माताओं की तपस्या को मिट्टी में मिलाने की कोशिश की गई थी।’’
-डॉ. आशीष वशिष्ठ
(स्वतंत्र पत्रकार)