आखिर गठबंधन की 'गदहपचीसी' में कबतक उलझा रहेगा बिहार? बताएं नेता-मतदातागण!

सिद्धांत विहीन गठबंधन की राजनीति से किसी भी जीवंत लोकतंत्र का कदापि भला नहीं हो सकता है। बिहार इसका दिलचस्प उदाहरण बन चुका है। यहां पर नीति और नियम दोनों का माखौल उड़ाया जा रहा है। चाहे एनडीए हो या इंडिया महागठबंधन (पूर्व नाम यूपीए), दोनों जगहों पर टिकट बंटवारे में जितनी सिरफुटौव्वल दिखाई पड़ी, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यदि मतदाताओं ने समझदारी नहीं दिखाई तो 14 नवम्बर से सरकार बनाने के लिए हॉर्स ट्रेडिंग होना तय है। सच कहूं तो इस फजीहत भरी सियासी स्थिति के लिए भाजपा और कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व भी कम जिम्मेदार नहीं है, क्योंकि उनके बीच बारहों मास चलते रहने वाले शह और मात के अनैतिक खेल से उनके क्षेत्रीय सहयोगियों के इकबाल बुलंद रहते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जदयू और पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव (सुपुत्र पूर्व मुख्यमंत्रीद्वय लालू यादव व राबड़ी देवी) तो महज इनके हथकंडे मात्र हैं।लेकिन कभी एक-दूसरे की सियासी उन्नति की सहायक रहे नीतीश कुमार और लालू यादव इतने सजग रहते हैं कि इन्होंने एक-दूसरे का प्रबल विरोधी रहने के बावजूद दो-दो बार आपस में हाथ मिलाने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई। इन्होंने भाजपा-कांग्रेस की सियासी तिकड़मों को बिहार में कभी सफल नहीं होने दिया। खास बात यह कि बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के टिकट बंटवारे से पहले भी इन्होंने यानी जदयू ने भाजपा को और राजद ने कांग्रेस को, उनके गठबंधन सहयोगियों को उकसाकर जो गुप्त सियासी खेल खेला है, उससे राजनीतिक विश्लेषकों का भी दंग रह जाना स्वाभाविक है।इसे भी पढ़ें: सोच के स्तर पर बदल रही बिहारी राजनीतिजदयू का यह कहना कि लोजपा आर, हम और रालोमो को भाजपा मैनेज करे, यह एक गहरी सियासी चाल है! वहीं तेजस्वी यादव के परोक्ष इशारे पर वीवीआईपी प्रमुख मुकेश सहनी द्वारा कांग्रेस पर तंज कसना और कांग्रेस को पिछली बार से भी कम सीटें ऑफर करना, साथ ही भाकपा माले द्वारा अधिक सीटों की मांग करना यह जाहिर करता है कि  राजद अपने सहयोगियों को सीट बंटवारे के दौरान इतना कमजोर रखना चाहता है कि कि चुनाव परिणाम आने के बाद भी इनकी मोलभाव की ताकत कम रहे। यही पेंच जदयू की भी है, लेकिन भाजपा ने उसे 122 से 101 तक झुकाकर अपनी बढ़त बना ली है।इस बात में कोई दो राय नहीं कि गठबंधन की बुनियाद पर लड़े जा रहे चुनाव में पहली और बड़ी चुनौती यही रहती है कि गठबंधन के भीतर किस तरह से सहयोगी दलों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और जमीनी हकीकत के बीच तालमेल बिठाया जाए यानी कि सही संतुलन साधा जाए। इस नजरिए से बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए ने सहयोगियों के बीच सीटों की संख्या के बंटवारे की गुत्थी पहले ही सुलझाकर शुरुआती बढ़त हासिल कर ली है, लेकिन सीटों के बंटवारे का असली पेंच यहां भी खबर लिखे जाने तक फंसा हुआ है।सियासी टिप्पणीकारों की मानें तो बिहार में राजग या महागठबंधन के 2020 के मुकाबले 2025 में गठबंधनों के बाहर ही नहीं, बल्कि भीतर भी समीकरण बदल चुके हैं, जिसका तीखा असर सीट शेयरिंग पर भी दिख रहा है। एनडीए में जदयू और बीजेपी बराबर-बराबर सीटों पर मैदान में हैं, जबकि बाकी दलों को उनकी मांग से काफी कम सीटों पर ही संतोष करना पड़ा है। जिससे वे लोग बाहर से खुश और अंदर से नाखुश हैं। उनकी सियासी कविताएं इसी बात की चुगली करती हैं। हालांकि गठबंधन के लिए अच्छी बात यह होगी कि किसी सहयोगी दल ने खुलेआम नाखुशी जाहिर नहीं की है, क्योंकि अब में निर्विकल्प हो चुके हैं।जानकारों की मानें तो बिहार विधानसभा चुनाव 2025 मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सामने एक नहीं बल्कि कई चुनौतियां लेकर आया है। भले ही वृद्ध हठ के अनुरूप इस चुनाव में भी राजग का चेहरा नीतीश कुमार ही हैं, लेकिन बड़े भाई वाली उनकी पार्टी की भूमिका अब बराबर वाली हो चुकी है। पिछले दो दशकों से यही कहानी रही है कि उनके साथ में भाजपा रही हो या राजद, सीटें कम आई हों या ज्यादा -नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री बने। बीच में कुछ समय के लिए जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री उन्होंने ही बनवाया था। इसप्रकार वर्ष 2005 से ही वह मुख्यमंत्री पद पर बने हुए हैं। हालांकि इस चुनाव में उनकी राह आसान नहीं लग रही है, क्योंकि भाजपा, लोजपा आर, हम और रालोमो का दबाव उनपर है। वहीं, कानून-व्यवस्था को चुनौती देते अपराधियों की टीम और उनके सहयोगियों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों ने उनकी सुशासन बाबू वाली छवि को गहरी चोट पहुंचाई है। हालांकि मोदी नाम केवलम के दम पर तो उनकी चुनावी नैया पार लग जाएगी। लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि पिछली बार की तरह अगर इस बार भी उन्हें भाजपा से कम सीटें मिलती हैं, तब भी क्या सीएम की कुर्सी पर उनका दावा बना रहेगा या फिर चुनाव बाद कोई नया राजनीतिक खेल शुरू होगा।वहीं, राजद की मुश्किल अलग प्रकार की है। कहा जा रहा है कि एनडीए ने जिस फॉर्म्युले को समय रहते ही सुलझा लिया, उसी फॉर्मूले तक पहुंचने में महागठबंधन को अभी काफी पापड़ बेलने पड़ेंगे और कांग्रेस आलाकमान की कठिन परीक्षा से उन्हें गुजरना है। क्योंकि इस बार कांग्रेस ने बिहार में पहले से भी अधिक सीटों की आस लगाई है। जबकि राजद के लिए उसे मानना और साथ में दूसरे सहयोगियों से तालमेल बैठाना काफी मुश्किल हो सकता है। ऐसा उनकी परस्पर विरोधाभासी बयानबाजियों से पता चलता है।कोढ़ में खाज यह कि इस बीच आईआरसीटीसी होटल भ्रष्टाचार (करप्शन) केस में पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव, पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी और पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के खिलाफ आरोप तय होने से भी तीनों नेताओं की परेशानी बढ़ी है और आगे भी ज्यादा बढ़ सकती है। चूंकि तेजस्वी यादव ने अपने चुनावी अभियान में भ्रष्टाचार और रोजगार जैसे अहम मुद्दे उठाए हैं। लेकिन ऐन चुनाव के पहले भ्रष्टाचार के मुकदमे (करप्शन केस) के आगे बढ़ने से उनके विरोधी दलों को एक और बड़ा मौका मिल गया है और भाजपा ने तो इसकी आक्रामक शुरुआत भी कर दी है।उधर, सुप्रसिद्ध चुनावी रणनीतिकार प्रशांत

Oct 17, 2025 - 22:53
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आखिर गठबंधन की 'गदहपचीसी' में कबतक उलझा रहेगा बिहार? बताएं नेता-मतदातागण!
सिद्धांत विहीन गठबंधन की राजनीति से किसी भी जीवंत लोकतंत्र का कदापि भला नहीं हो सकता है। बिहार इसका दिलचस्प उदाहरण बन चुका है। यहां पर नीति और नियम दोनों का माखौल उड़ाया जा रहा है। चाहे एनडीए हो या इंडिया महागठबंधन (पूर्व नाम यूपीए), दोनों जगहों पर टिकट बंटवारे में जितनी सिरफुटौव्वल दिखाई पड़ी, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यदि मतदाताओं ने समझदारी नहीं दिखाई तो 14 नवम्बर से सरकार बनाने के लिए हॉर्स ट्रेडिंग होना तय है। 

सच कहूं तो इस फजीहत भरी सियासी स्थिति के लिए भाजपा और कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व भी कम जिम्मेदार नहीं है, क्योंकि उनके बीच बारहों मास चलते रहने वाले शह और मात के अनैतिक खेल से उनके क्षेत्रीय सहयोगियों के इकबाल बुलंद रहते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जदयू और पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव (सुपुत्र पूर्व मुख्यमंत्रीद्वय लालू यादव व राबड़ी देवी) तो महज इनके हथकंडे मात्र हैं।

लेकिन कभी एक-दूसरे की सियासी उन्नति की सहायक रहे नीतीश कुमार और लालू यादव इतने सजग रहते हैं कि इन्होंने एक-दूसरे का प्रबल विरोधी रहने के बावजूद दो-दो बार आपस में हाथ मिलाने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई। इन्होंने भाजपा-कांग्रेस की सियासी तिकड़मों को बिहार में कभी सफल नहीं होने दिया। खास बात यह कि बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के टिकट बंटवारे से पहले भी इन्होंने यानी जदयू ने भाजपा को और राजद ने कांग्रेस को, उनके गठबंधन सहयोगियों को उकसाकर जो गुप्त सियासी खेल खेला है, उससे राजनीतिक विश्लेषकों का भी दंग रह जाना स्वाभाविक है।

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जदयू का यह कहना कि लोजपा आर, हम और रालोमो को भाजपा मैनेज करे, यह एक गहरी सियासी चाल है! वहीं तेजस्वी यादव के परोक्ष इशारे पर वीवीआईपी प्रमुख मुकेश सहनी द्वारा कांग्रेस पर तंज कसना और कांग्रेस को पिछली बार से भी कम सीटें ऑफर करना, साथ ही भाकपा माले द्वारा अधिक सीटों की मांग करना यह जाहिर करता है कि  राजद अपने सहयोगियों को सीट बंटवारे के दौरान इतना कमजोर रखना चाहता है कि कि चुनाव परिणाम आने के बाद भी इनकी मोलभाव की ताकत कम रहे। यही पेंच जदयू की भी है, लेकिन भाजपा ने उसे 122 से 101 तक झुकाकर अपनी बढ़त बना ली है।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि गठबंधन की बुनियाद पर लड़े जा रहे चुनाव में पहली और बड़ी चुनौती यही रहती है कि गठबंधन के भीतर किस तरह से सहयोगी दलों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और जमीनी हकीकत के बीच तालमेल बिठाया जाए यानी कि सही संतुलन साधा जाए। इस नजरिए से बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए ने सहयोगियों के बीच सीटों की संख्या के बंटवारे की गुत्थी पहले ही सुलझाकर शुरुआती बढ़त हासिल कर ली है, लेकिन सीटों के बंटवारे का असली पेंच यहां भी खबर लिखे जाने तक फंसा हुआ है।

सियासी टिप्पणीकारों की मानें तो बिहार में राजग या महागठबंधन के 2020 के मुकाबले 2025 में गठबंधनों के बाहर ही नहीं, बल्कि भीतर भी समीकरण बदल चुके हैं, जिसका तीखा असर सीट शेयरिंग पर भी दिख रहा है। एनडीए में जदयू और बीजेपी बराबर-बराबर सीटों पर मैदान में हैं, जबकि बाकी दलों को उनकी मांग से काफी कम सीटों पर ही संतोष करना पड़ा है। जिससे वे लोग बाहर से खुश और अंदर से नाखुश हैं। उनकी सियासी कविताएं इसी बात की चुगली करती हैं। हालांकि गठबंधन के लिए अच्छी बात यह होगी कि किसी सहयोगी दल ने खुलेआम नाखुशी जाहिर नहीं की है, क्योंकि अब में निर्विकल्प हो चुके हैं।

जानकारों की मानें तो बिहार विधानसभा चुनाव 2025 मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सामने एक नहीं बल्कि कई चुनौतियां लेकर आया है। भले ही वृद्ध हठ के अनुरूप इस चुनाव में भी राजग का चेहरा नीतीश कुमार ही हैं, लेकिन बड़े भाई वाली उनकी पार्टी की भूमिका अब बराबर वाली हो चुकी है। पिछले दो दशकों से यही कहानी रही है कि उनके साथ में भाजपा रही हो या राजद, सीटें कम आई हों या ज्यादा -नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री बने। बीच में कुछ समय के लिए जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री उन्होंने ही बनवाया था। इसप्रकार वर्ष 2005 से ही वह मुख्यमंत्री पद पर बने हुए हैं। 

हालांकि इस चुनाव में उनकी राह आसान नहीं लग रही है, क्योंकि भाजपा, लोजपा आर, हम और रालोमो का दबाव उनपर है। वहीं, कानून-व्यवस्था को चुनौती देते अपराधियों की टीम और उनके सहयोगियों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों ने उनकी सुशासन बाबू वाली छवि को गहरी चोट पहुंचाई है। हालांकि मोदी नाम केवलम के दम पर तो उनकी चुनावी नैया पार लग जाएगी। लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि पिछली बार की तरह अगर इस बार भी उन्हें भाजपा से कम सीटें मिलती हैं, तब भी क्या सीएम की कुर्सी पर उनका दावा बना रहेगा या फिर चुनाव बाद कोई नया राजनीतिक खेल शुरू होगा।

वहीं, राजद की मुश्किल अलग प्रकार की है। कहा जा रहा है कि एनडीए ने जिस फॉर्म्युले को समय रहते ही सुलझा लिया, उसी फॉर्मूले तक पहुंचने में महागठबंधन को अभी काफी पापड़ बेलने पड़ेंगे और कांग्रेस आलाकमान की कठिन परीक्षा से उन्हें गुजरना है। क्योंकि इस बार कांग्रेस ने बिहार में पहले से भी अधिक सीटों की आस लगाई है। जबकि राजद के लिए उसे मानना और साथ में दूसरे सहयोगियों से तालमेल बैठाना काफी मुश्किल हो सकता है। ऐसा उनकी परस्पर विरोधाभासी बयानबाजियों से पता चलता है।

कोढ़ में खाज यह कि इस बीच आईआरसीटीसी होटल भ्रष्टाचार (करप्शन) केस में पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव, पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी और पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के खिलाफ आरोप तय होने से भी तीनों नेताओं की परेशानी बढ़ी है और आगे भी ज्यादा बढ़ सकती है। चूंकि तेजस्वी यादव ने अपने चुनावी अभियान में भ्रष्टाचार और रोजगार जैसे अहम मुद्दे उठाए हैं। लेकिन ऐन चुनाव के पहले भ्रष्टाचार के मुकदमे (करप्शन केस) के आगे बढ़ने से उनके विरोधी दलों को एक और बड़ा मौका मिल गया है और भाजपा ने तो इसकी आक्रामक शुरुआत भी कर दी है।

उधर, सुप्रसिद्ध चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की नवस्थापित पार्टी जनसुराज का एंगल भी राजग और महागठबंधन की सियासी महत्वाकांक्षाओं में सियासी पलीता लगा सकता है, क्योंकि प्रशांत किशोर की पार्टी जनसुराज ने भी उम्मीदवारों का ताबड़तोड़ ऐलान शुरू कर दिया है। इससे कहीं एनडीए को तो कहीं महागठबंधन को तगड़ा घाटा होगा, क्योंकि इस पार्टी की ओर से अब तक की जारी लिस्ट में जातिगत समीकरणों का पूरा पूरा ख्याल रखा गया है। 

बहरहाल, अब पहले चरण के चुनाव के लिए नामांकन की आखिरी तारीख में केवल चार दिन बचे हैं, और दूसरे खेमों ने लिस्ट जारी करने में बाजी मार ली है, तो महागठबंधन पर दबाव बढ़ा होगा, ऐसा स्वाभाविक है। जनता को भी अब एनडीए और महागठबंधन की कीच कीच रास नहीं आ रही है। जिन उम्मीदवारों को चुनाव प्रचार का कम समय मिलेगा, उनकी जीत के चान्स भगवान भरोसे रह जाए तो कहना गलत नहीं होगा। अब यह बिहार के प्रबुद्धजनों व मतदाताओं के ऊपर निर्भर है कि गठबंधन की गदहा-पचीसी से वो बाहर निकलकर एक नए भविष्य का निर्माण करेंगे या फिर लालू प्रसाद व उनके विकल्प नीतीश कुमार के सियासी भूलभुलैया में उलझे रहेंगे। 

सवाल मौजूं है कि आखिर गठबंधन की 'गदहपचीसी' में कबतक उलझा रहेगा बिहार? बिहार के नेताओं व मतदाताओं को यह बात स्पष्ट करके ही दमदार निर्णय लेना चाहिए। उन्हें यह समझना होगा कि मुख्यमंत्री के साथ साथ भावी प्रधानमंत्री वो कब चुनेंगे?

- कमलेश पाण्डेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक