वंदे मातरम का 150वां साल: राष्ट्रगीत पर सियासी घमासान, गरमाई देश की राजनीति।

देश इस समय वंदे मातरम के 150 वर्ष पूरे होने का जश्न मना रहा है, लेकिन इसके साथ ही यह ऐतिहासिक गीत एक बार फिर सियासी बहस के केंद्र में आ गया है। एक ओर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) इसे राष्ट्रभक्ति का पर्व बता रही है, वहीं कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के साथ कई राज्यों में इसको लेकर राजनीतिक विवाद तेज हो गया है। शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिल्ली के इंदिरा गांधी स्टेडियम में वंदे मातरम के पूरे संस्करण का सामूहिक गायन कार्यक्रम में शामिल होंगे। यह आयोजन देशभर के 150 ऐतिहासिक स्थलों से जुड़ा है और 26 नवंबर, यानी संविधान दिवस तक चलेगा। भाजपा ने इसे “राष्ट्रवाद का उत्सव” बताया है।भाजपा प्रवक्ता सी.आर. केसवन ने कांग्रेस पर आरोप लगाया है कि उसने वंदे मातरम को साम्प्रदायिक रंग देकर इसके मूल स्वरूप से छेड़छाड़ की थी। उनका कहना है कि 1937 में कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए जवाहरलाल नेहरू ने इसके कुछ अंश हटवा दिए थे, जिनमें देवी दुर्गा का उल्लेख था। केसवन ने दावा किया कि नेहरू ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस को लिखे पत्रों में लिखा था कि वंदे मातरम मुसलमानों को “उकसा सकता” है, इसलिए इसे राष्ट्रीय गीत के रूप में उपयुक्त नहीं माना गया था।उन्होंने कहा कि आज जब प्रधानमंत्री मोदी पूरे संस्करण का सामूहिक गायन करने जा रहे हैं, तो यह उस ऐतिहासिक गलती को सुधारने का प्रतीक है। केसवन ने कांग्रेस पर “हिंदू विरोधी मानसिकता” का आरोप लगाते हुए कहा कि यह सोच नेहरू के समय से लेकर राहुल गांधी के बयानों तक दिखाई देती है।उधर, पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा राज्य के लिए एक अलग राज्य गीत बनाने की घोषणा के बाद नया विवाद खड़ा हो गया है। भाजपा नेता दिलीप घोष ने कहा कि वंदे मातरम बंगाल की धरती पर लिखा गया, इसलिए किसी “राज्य गीत” की जरूरत नहीं है। उनका कहना था कि रवीन्द्रनाथ टैगोर और बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय दोनों बंगाल की ही देन हैं, एक ने राष्ट्रगान लिखा और दूसरे ने राष्ट्रगीत।महाराष्ट्र में समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आसिम आज़मी के वंदे मातरम गाने से इनकार करने पर विवाद और बढ़ गया है। आज़मी ने कहा कि यह उनके धार्मिक सिद्धांतों के खिलाफ है और अदालत पहले ही स्पष्ट कर चुकी है कि राष्ट्रगीत का सम्मान जरूरी है, लेकिन उसे गाना अनिवार्य नहीं है। इस पर भाजपा मंत्री मंगल प्रभात लोढा ने घोषणा की कि वे आज़मी और कुछ कांग्रेस विधायकों के घरों के बाहर सामूहिक गायन का आयोजन करेंगे। इस पर आज़मी ने पलटवार करते हुए कहा कि “राजनीतिक नाटक” करने की कोई जरूरत नहीं है।राजस्थान में भी मामला गरमाया हुआ है। राज्य के शिक्षा मंत्री मदन दिलावर ने मदरसों में वंदे मातरम गाने का आदेश जारी किया है। कांग्रेस ने इस फैसले का विरोध करते हुए कहा कि भाजपा एक “निरर्थक विषय” को राजनीतिक रंग दे रही है। कांग्रेस का कहना है कि राज्य के स्कूलों में पहले से ही यह परंपरा रही है, इसलिए इसे नया मुद्दा बनाना केवल सांप्रदायिक माहौल को भड़काने की कोशिश है।गौरतलब है कि बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1875 में वंदे मातरम की रचना की थी और 1896 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे सार्वजनिक रूप से गाया था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान यह गीत देशभक्ति की भावना का प्रतीक बना और 1950 में इसे राष्ट्रगीत का दर्जा मिला।बता दें कि आज जब देश इसका 150वां वर्ष मना रहा है, तब यह गीत, जिसने कभी भारत को आज़ादी की लड़ाई में एक सूत्र में पिरोया था, अब राजनीति, आस्था और पहचान की नई बहस का हिस्सा बन गया है। इस ऐतिहासिक गीत को लेकर जारी विवाद देश की विविधता और लोकतांत्रिक सोच की परीक्षा लेता दिख रहा है, लेकिन इसके बावजूद लोगों के दिलों में इसकी भावनात्मक जगह अब भी उतनी ही गहरी बनी हुई है।

Nov 7, 2025 - 22:33
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वंदे मातरम का 150वां साल: राष्ट्रगीत पर सियासी घमासान, गरमाई देश की राजनीति।
देश इस समय वंदे मातरम के 150 वर्ष पूरे होने का जश्न मना रहा है, लेकिन इसके साथ ही यह ऐतिहासिक गीत एक बार फिर सियासी बहस के केंद्र में आ गया है। एक ओर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) इसे राष्ट्रभक्ति का पर्व बता रही है, वहीं कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के साथ कई राज्यों में इसको लेकर राजनीतिक विवाद तेज हो गया है।
 
शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिल्ली के इंदिरा गांधी स्टेडियम में वंदे मातरम के पूरे संस्करण का सामूहिक गायन कार्यक्रम में शामिल होंगे। यह आयोजन देशभर के 150 ऐतिहासिक स्थलों से जुड़ा है और 26 नवंबर, यानी संविधान दिवस तक चलेगा। भाजपा ने इसे “राष्ट्रवाद का उत्सव” बताया है।

भाजपा प्रवक्ता सी.आर. केसवन ने कांग्रेस पर आरोप लगाया है कि उसने वंदे मातरम को साम्प्रदायिक रंग देकर इसके मूल स्वरूप से छेड़छाड़ की थी। उनका कहना है कि 1937 में कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए जवाहरलाल नेहरू ने इसके कुछ अंश हटवा दिए थे, जिनमें देवी दुर्गा का उल्लेख था। केसवन ने दावा किया कि नेहरू ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस को लिखे पत्रों में लिखा था कि वंदे मातरम मुसलमानों को “उकसा सकता” है, इसलिए इसे राष्ट्रीय गीत के रूप में उपयुक्त नहीं माना गया था।

उन्होंने कहा कि आज जब प्रधानमंत्री मोदी पूरे संस्करण का सामूहिक गायन करने जा रहे हैं, तो यह उस ऐतिहासिक गलती को सुधारने का प्रतीक है। केसवन ने कांग्रेस पर “हिंदू विरोधी मानसिकता” का आरोप लगाते हुए कहा कि यह सोच नेहरू के समय से लेकर राहुल गांधी के बयानों तक दिखाई देती है।

उधर, पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा राज्य के लिए एक अलग राज्य गीत बनाने की घोषणा के बाद नया विवाद खड़ा हो गया है। भाजपा नेता दिलीप घोष ने कहा कि वंदे मातरम बंगाल की धरती पर लिखा गया, इसलिए किसी “राज्य गीत” की जरूरत नहीं है। उनका कहना था कि रवीन्द्रनाथ टैगोर और बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय दोनों बंगाल की ही देन हैं, एक ने राष्ट्रगान लिखा और दूसरे ने राष्ट्रगीत।

महाराष्ट्र में समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आसिम आज़मी के वंदे मातरम गाने से इनकार करने पर विवाद और बढ़ गया है। आज़मी ने कहा कि यह उनके धार्मिक सिद्धांतों के खिलाफ है और अदालत पहले ही स्पष्ट कर चुकी है कि राष्ट्रगीत का सम्मान जरूरी है, लेकिन उसे गाना अनिवार्य नहीं है। इस पर भाजपा मंत्री मंगल प्रभात लोढा ने घोषणा की कि वे आज़मी और कुछ कांग्रेस विधायकों के घरों के बाहर सामूहिक गायन का आयोजन करेंगे। इस पर आज़मी ने पलटवार करते हुए कहा कि “राजनीतिक नाटक” करने की कोई जरूरत नहीं है।

राजस्थान में भी मामला गरमाया हुआ है। राज्य के शिक्षा मंत्री मदन दिलावर ने मदरसों में वंदे मातरम गाने का आदेश जारी किया है। कांग्रेस ने इस फैसले का विरोध करते हुए कहा कि भाजपा एक “निरर्थक विषय” को राजनीतिक रंग दे रही है। कांग्रेस का कहना है कि राज्य के स्कूलों में पहले से ही यह परंपरा रही है, इसलिए इसे नया मुद्दा बनाना केवल सांप्रदायिक माहौल को भड़काने की कोशिश है।
गौरतलब है कि बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1875 में वंदे मातरम की रचना की थी और 1896 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे सार्वजनिक रूप से गाया था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान यह गीत देशभक्ति की भावना का प्रतीक बना और 1950 में इसे राष्ट्रगीत का दर्जा मिला।

बता दें कि आज जब देश इसका 150वां वर्ष मना रहा है, तब यह गीत, जिसने कभी भारत को आज़ादी की लड़ाई में एक सूत्र में पिरोया था, अब राजनीति, आस्था और पहचान की नई बहस का हिस्सा बन गया है। इस ऐतिहासिक गीत को लेकर जारी विवाद देश की विविधता और लोकतांत्रिक सोच की परीक्षा लेता दिख रहा है, लेकिन इसके बावजूद लोगों के दिलों में इसकी भावनात्मक जगह अब भी उतनी ही गहरी बनी हुई है।