बांग्लादेश की राजनीति में वैसे तो उथल-पुथल कोई नई बात नहीं है लेकिन ढाका के अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना को “मानवता के खिलाफ अपराध” के आरोप में फाँसी की सज़ा सुनाने का फैसला देश के भविष्य में स्थायी अस्थिरता की मुहर लगा सकता है। साथ ही इस फैसले से पूरे दक्षिण एशिया का सुरक्षा समीकरण भी प्रभावित हो सकता है। देखा जाये तो न्यायाधिकरण ने अपने फैसले में जो कुछ कहा है उससे बड़ी बात यह है कि क्या यह वाकई न्याय है? या फिर बदले की राजनीति है? क्या यह फैसला वास्तव में मानवता के खिलाफ अपराधों का दंड है? या फिर एक वैचारिक युद्ध है जिसमें चुनावी हार के बाद बदले का चक्र शुरू हो चुका है? हम आपको याद दिला दें कि शेख हसीना की सत्ता के पतन के बाद जिस अंतरिम सरकार ने सत्ता संभाली, उसी ने हसीना को भगोड़ा घोषित किया और उनकी अनुपस्थिति में ही मुकदमा चलाया। यह तथ्य खुद अदालत की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।
शेख हसीना कोई सामान्य नेता नहीं हैं वह बांग्लादेश की सबसे लंबे समय तक सत्ता में रहने वाली राजनीतिक हस्ती हैं। अपने अंतिम साक्षात्कार में उन्होंने साफ कहा था कि अदालत “राजनीतिक प्रतिशोध” की मशीन बन चुकी है और उनके विरोधी उनके तथा अवामी लीग के खिलाफ वातावरण बनाकर अपने पापों को छिपा रहे हैं। शेख हसीना चाहे विवादित रही हों, पर बांग्लादेश में उनका आधार बेहद व्यापक है। ऐसे नेता को मौत की सज़ा देना जनता के भावनात्मक संतुलन को तोड़ेगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस फैसले से बांग्लादेश के राजनीतिक और सामाजिक हालात और हिंसक होंगे और यह देश को लोकतंत्र से और दूर ले जाएगा।
वैसे भी बांग्लादेश पहले ही विस्फोटक हालात से गुजर रहा है। 2024 का “जुलाई विद्रोह”, जिसमें संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार मात्र एक माह में 1,400 लोगों की मौत हुई, यह बताने के लिए काफी है कि स्थिति कितनी बेकाबू हो चुकी थी। आज भी न्यायाधिकरण का फैसला आने से पहले बांग्लादेश भर में जो विस्फोट और हिंसा की खबरें आईं वह यह बताने के लिए काफी थीं कि हालात अब भी नियंत्रण से बाहर ही हैं। अब जो फैसला सामने आया है उससे हालात और बिगड़ेंगे ही क्योंकि शेख हसीना समर्थक पहले ही सड़कों पर उतर चुके हैं। हालात इतने बिगड़े हुए हैं कि पुलिस को प्रदर्शनकारियों को ‘देखते ही गोली मारने’ का आदेश तक देना पड़ा है।
इसके अलावा, मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार पहले से ही आलोचनाओं से घिरी हुई है। इसे जनमत का समर्थन नहीं है, विपक्ष से उसका लगातार टकराव चल रहा है और प्रशासनिक स्तर पर वह पूरी तरह विफल है। बांग्लादेश में कई क्षेत्रों में बुनियादी प्रशासन ठप है। ग्रामीण इलाकों में अवामी लीग के समर्थक और विरोधी समूहों के बीच झड़पों की खबरें भी लगातार आती रही हैं। ऐसे में यह फैसला अंतरिम सरकार की ओर से अपनी राजनीतिक प्रतिष्ठा बचाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है।
शेख हसीना को मौत की सज़ा दक्षिण एशिया की राजनीति का वह मोड़ है जहाँ न्याय, राजनीति और शक्ति की लड़ाई एक-दूसरे में उलझ गई है। कुल मिलाकर देखें तो यह फैसला न्याय से अधिक राजनीति है और राजनीति जब प्रतिशोध बन जाती है, तो वह राष्ट्र को घाव ही देती है, समाधान नहीं।
दूसरी ओर, भारत के लिए भी यह फैसला अत्यंत जटिल स्थिति पैदा कर गया है क्योंकि शेख हसीना भारत में ही रह रही हैं। अंतरिम सरकार पहले ही नई दिल्ली से उनकी वापसी की मांग कर चुकी है। लेकिन भारत एक ऐसी स्थिति में फँस चुका है जहाँ हर कदम जोखिम से भरा है। यदि भारत हसीना को ढाका की अंतरिम सरकार के हवाले कर देता है, तो वह न केवल एक ऐसे फैसले को वैधता देगा जिसे व्यापक रूप से राजनीतिक प्रतिशोध माना जा रहा है, बल्कि बांग्लादेश में भारत समर्थक भावना को भी चोट पहुँचाएगा। अवामी लीग, जो वर्षों से भारत की सबसे विश्वसनीय साझेदार रही है, वह इससे भारत से मोहभंग महसूस करेगी और भारत-विरोधी ताकतों को राजनीतिक ईंधन मिल जाएगा।
वहीं यदि भारत हसीना को शरण देना जारी रखता है, तो अंतरिम सरकार और कट्टरपंथी समूह भारत पर “हस्तक्षेपकारी” और “लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधा डालने वाला” देश होने का आरोप लगाएंगे। इससे दोनों देशों के राजनयिक संबंध तनावपूर्ण हो सकते हैं। सीमा प्रबंधन, व्यापार समझौते और सुरक्षा सहयोग जैसे क्षेत्रों में रुकावटें बढ़ सकती हैं। भारत-विरोधी उग्र समूह इस स्थिति का फायदा उठाकर भारत के खिलाफ नफ़रत का माहौल बना सकते हैं जो सीधे तौर पर सुरक्षा चुनौतियों को जन्म देगा।
अब भारत के सामने सीधा सवाल है कि क्या वह मानवाधिकार और विधिक प्रक्रिया के नाम पर हसीना को प्रतिद्वंद्वी सरकार के हवाले कर दे, या क्षेत्रीय स्थिरता और दीर्घकालिक सामरिक हितों को देखते हुए उन्हें सुरक्षित रखे? यह दुविधा केवल कूटनीतिक नहीं, बल्कि रणनीतिक भी है। हसीना भारत के लिए वह नेता रही हैं जिन्होंने बांग्लादेश को चीन की गोद में पूरी तरह गिरने नहीं दिया।
जहां तक अदालती फैसले की बात है तो आपको बता दें कि पिछले वर्ष पांच अगस्त को अपनी सरकार गिरने के बाद से भारत में रह रही 78 वर्षीय शेख हसीना को अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण-बांग्लादेश (आईसीटी-बीडी) ने मौत की सजा सुनाने से पहले कहा कि अभियोजन पक्ष ने बिना किसी संदेह के यह साबित कर दिया है कि पिछले साल 15 जुलाई से 15 अगस्त के बीच छात्रों के नेतृत्व वाले विरोध प्रदर्शनों पर घातक कार्रवाई के पीछे हसीना का ही हाथ था। शेख हसीना को निहत्थे प्रदर्शनकारियों के खिलाफ घातक बल प्रयोग का आदेश देने, भड़काऊ बयान देने और ढाका तथा आसपास के इलाकों में कई छात्रों की हत्या के लिए अभियान चलाने की अनुमति देने के लिए मौत की सजा सुनाई गई है।
हालांकि शेख हसीना ने आरोपों से इंकार करते हुए अदालत के फैसले को प्रतिशोध की कार्रवाई बताया है। उन्होंने अपने बयान में कहा है कि “मेरे ख़िलाफ़ सुनाए गए फ़ैसले एक धांधली से बनाए गए उस न्यायाधिकरण द्वारा दिए गए हैं, जिसकी स्थापना और अध्यक्षता एक ऐसी गैर-निर्वाचित सरकार ने की है जिसका कोई लोकतांत्रिक जनादेश नहीं है। ये फैसले पक्षपातपूर्ण हैं और राजनीतिक बदले की भावना से प्रेरित हैं। मृत्यु दंड की उनकी अप्रिय मांग यह दिखाती है कि अंतरिम सरकार के भीतर मौजूद अतिवादी तत्व किस तरह बांग्लादेश की अंतिम निर्वाचित प्रधानमंत्री को हटाने और अवामी लीग को एक राजनीतिक शक्ति के रूप में समाप्त करने का नंग-धड़ंग और हिंसक इरादा रखते हैं।”
शेख हसीना ने कहा, “मैं ICT द्वारा लगाए गए मानवाधिकार उल्लंघन के अन्य आरोपों को भी पूरी तरह से निराधार मानती हूँ। मुझे अपनी सरकार के मानवाधिकार और विकास से जुड़े रिकॉर्ड पर बेहद गर्व है। हमने 2010 में बांग्लादेश को अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC) में शामिल कराया, म्यांमार में उत्पीड़न से भागकर आने वाले लाखों रोहिंग्या शरणार्थियों को आश्रय दिया, बिजली और शिक्षा की पहुंच का विस्तार किया और 15 वर्षों में 450% GDP वृद्धि के साथ लाखों लोगों को गरीबी से बाहर निकाला। ये उपलब्धियाँ ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में दर्ज हैं। ये किसी ऐसी नेतृत्व-व्यवस्था के कार्य नहीं हो सकते जो मानवाधिकारों को लेकर उदासीन हो और डॉ. यूनुस तथा उनके प्रतिशोधी साथियों के पास ऐसी कोई उपलब्धि नहीं है जो इनसे दूर-दूर तक तुलना की जा सके।''
बहरहाल, यह पूरा प्रसंग बांग्लादेश की मौजूदा राजनीतिक अस्थिरता और संस्थागत अविश्वसनीयता की ओर गहरी चिंता प्रकट करता है। किसी भी देश में यदि न्यायिक संस्थानों का उपयोग राजनीतिक सफ़ाए या प्रतिशोध के लिए होता दिखे, तो यह शासन की वैधता पर गंभीर प्रश्न खड़े करता है। बांग्लादेश की लोकतांत्रिक साख तभी पुनर्स्थापित होगी जब न्यायिक प्रक्रियाएँ पारदर्शी बनें और राजनीतिक मामलों का समाधान राजनीतिक संवाद से हो। वरना, यह संघर्ष बांग्लादेश को और गहरे विभाजन की ओर ले जाएगा, जहाँ न न्याय बचेगा न लोकतंत्र।
-नीरज कुमार दुबे