पूर्व सीजेआई बी.आर.गवई द्वारा एससी-एसटी कोटा से क्रीमी लेयर को बाहर रखने समेत अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर तर्कसम्मत बातें रखने के सियासी मायने

अल्पसंख्यक 'दलित बौद्ध' सम्प्रदाय से आने वाले निवर्तमान प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) बी. आर. गवई ने जाते-जाते एक नया वैचारिक-वैधानिक विचार विस्फोट कर गए, जिसके दूरगामी न्यायिक और सियासी असर होंगे। इसलिए इसके कुछेक मायने अहम हैं। बताते चलें कि फॉर्मर चीफ जस्टिस गवई ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के ल कॉलेजियम प्रणाली का गत रविवार को पुरजोर बचाव किया, साथ ही अनुसूचित जाति-जनजाति (एससी-एसटी) कोटा से क्रीमी लेयर यानी संपन्न लोगों को बाहर रखने का समर्थन किया। वहीं, शीर्ष अदालत में अपने कार्यकाल कदौरान किसी भी महिला न्यायाधीश की नियुक्ति नहीं करने पर खेद व्यक्त किया। दरअसल, अपने आधिकारिक आवास पर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संस्थानों के जागरूक पत्रकारों के साथ अनौपचारिक बातचीत में 52वें प्रधान न्यायाधीश गवई ने कहा कि वह संस्था को ‘‘पूर्ण संतुष्टि और संतोष की भावना के साथ’’ छोड़ रहे हैं और सेवानिवृत्ति के बाद कोई भी कार्यभार स्वीकार नहीं करने के अपने संकल्प पर कायम रहेंगे। उल्लेखनीय है कि वह पहले बौद्ध सीजेआई होने के अलावा के. जी. बालकृष्णन के बाद भारतीय न्यायपालिका का नेतृत्व करने वाले दूसरे दलित हैं। इसलिए जाते जाते उन्होंने जो कुछ भी टिप्पणी की है, उससे निकट भविष्य में न्यायपालिका और सियासत दोनों के प्रभावित होने की अटकलें तेज हो चुकी हैं। जब निवर्तमान प्रधान न्यायाधीश ने यह कहा कि, ‘‘मैंने पदभार ग्रहण करते समय ही स्पष्ट कर दिया था कि मैं सेवानिवृत्ति के बाद कोई भी आधिकारिक कार्यभार स्वीकार नहीं करूंगा। अगले 9 से 10 दिन ‘कूलिंग ऑफ’ अवधि है। उसके बाद एक नयी पारी शुरू करूँगा।’’ इसे भी पढ़ें: Yes Milord: साफ-साफ बोले, घुमाओ मत... केंद्र सरकार पर इतना क्यों भड़के CJI गवई# सीजेआई गवई ने एससी-एसटी आरक्षण में भी क्रीमी लेयर का सिद्धांत लागू करने के वकालत की भी बात कही सीजेआई गवई ने एससी-एसटी आरक्षण में भी क्रीमी लेयर का सिद्धांत लागू करने के वकालत की। उन्होंने ओबीसी आरक्षण में क्रीमी लेयर के सिद्धांत के लागू होने और एससी-एसटी आरक्षण में क्रीमीलेयर के लागू नहीं हो पाने की सियासी वजहों और व्यक्तिगत न्यायिक दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए कहा कि वह खुद एससी-एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर की अवधारणा को लागू करने के पक्षधर हैं। इससे जरूरतमंदों को फायदा पहुंचेगा।मसलन, अपने कार्यकाल के आखिरी दिन भी चीफ जस्टिस बीआर गवई ने आरक्षण से जुड़े उस महत्वपूर्ण मामले को उठाया, जिस पर वह बोलते रहे हैं। उन्होंने अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति (एससी-एसटी) में भी क्रीमीलेयर लागू करने की वकालत की। देखा जाए तो चीफ जस्टिस गवई ने इस मुद्दे से जुड़े जिन पहलुओं को उठाया, वे अपनी जगह पर बिल्कुल सही है और हमारे राजनीतिक नेतृत्व द्वारा उन पर गम्भीरता पूर्वक गौर किया जाना चाहिए।अनुसूचित जातियों के संपन्न लोगों को आरक्षण के लाभों से वंचित करने के लिए क्रीमी लेयर की अवधारणा लागू करने पर अपने विचारों का पुरज़ोर बचाव करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘अगर ये लाभ बार-बार एक ही परिवार को मिलते रहेंगे, तो वर्ग के भीतर वर्ग उभर आएगा। आरक्षण उन लोगों तक पहुंचना चाहिए जिन्हें इसकी सचमुच ज़रूरत है।’’ उन्होंने सवाल किया, ‘‘अगर किसी मुख्य सचिव के बेटे या गांव में काम करने वाले भूमिहीन मज़दूर के बच्चे को... किसी आईएएस या आईपीएस अधिकारी के बेटे से प्रतिस्पर्धा करनी पड़े... तो क्या यह समान स्तर पर होगा?’’    न्यायमूर्ति गवई ने आगाह किया कि इस तरह के कदम उठाये बिना, आरक्षण का लाभ पीढ़ी दर पीढ़ी कुछ परिवारों द्वारा हथिया लिया जाता है, जिससे ‘‘वर्ग के भीतर वर्ग’’ का निर्माण होता है। हालांकि, उन्होंने स्पष्ट किया कि इस मुद्दे पर अंतिम निर्णय ‘‘सरकार और संसद को लेना है।’’ आरक्षण के जनहितकारी उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए चीफ जस्टिस गवई ने कहा कि रिजर्वेशन उसी को मिलना चाहिए, जो जरूरतमंद है। क्योंकि आरक्षण का उद्देश्य भी सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना और ऐतिहासिक रूप से पिछड़े वर्गों को आगे बढ़ने के लिए समान अवसर प्रदान करना है। लेकिन पिछड़े वर्गों के भीतर भी जो आगे बढ़ चुके हैं, उन्हे हमेशा के लिए यह लाभ नहीं मिलना चाहिए।कहना न होगा कि आरक्षण में क्रीमी लेयर का सवाल बहुत ही पुराना मुद्दा है यानी क्रीमीलेयर का सवाल बिल्कुल नया नहीं है। बल्कि तमिलनाडु सरकार ने 1969 में पिछड़े वर्गों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए सत्तनाथन कमिशन का गठन किया था, जिसने क्रीमीलेयर का कॉन्सेप्ट पेश किया। वहीं, 1986 में कर्नाटक सरकार से जुड़े एक मुकदमे में शीर्ष अदालत ने कहा था कि राज्य सरकार को आर्थिक आधार पर जांच लागू करनी चाहिए ताकि सही लोगों को आरक्षण का लाभ मिल सके।यही वजह है कि सीजेआई ने क्रीमी लेयर के मसले पर अपनी दो टूक राय रखी, क्योंकि यह ओबीसी आरक्षण में पहले से ही लागू है। इस मामले में इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ का मुकदमा नजीर बन चुका है। इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से ज्यादा नहीं रखने और ओबीसी में क्रीमीलेयर लागू करने का फैसला दिया था। इसके बाद केंद्र ने एक आयोग गठित किया, ताकि क्रीमीलेयर परिभाषित हो सके। सवाल है कि जब एक वर्ग में प्रशासनिक क्राइटेरिया तय है, तो इसे दूसरे वर्गों में भी आजमाने में दिक्कत नहीं आनी चाहिए। ताकि सभी तक फायदा पहुंचे। उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल अगस्त 2024 में ही एससी-एसटी कैटिगरी के भीतर सब-कैटिगरी को मंजूरी दी थी। इसका मकसद यही था कि वर्ग के भीतर मौजूद हर जाति तक आरक्षण का फायदा पहुंचे और कोई खास तबका ही लाभान्वित न होता रहे। सच कहा जाए तो क्रीमीलेयर भी इसी मकसद के लिए जरूरी है। 50 साल पहले जस्टिस कृष्ण अय्यर ने आरक्षण की इसी खामी की ओर ध्यान दिलाया था कि चूंकि समाज का ऊपरी तबका सारे लाभ ले जाता है। इसलिए सभी के लिए मौका सुनिश्चित करने की संसदीय पहल अविलंब शुरू की जानी चाहिए। इस अहम मुद्दे पर दलगत भावना से ऊपर उठकर कार्

Nov 26, 2025 - 11:38
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पूर्व सीजेआई बी.आर.गवई द्वारा एससी-एसटी कोटा से क्रीमी लेयर को बाहर रखने समेत अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर तर्कसम्मत बातें रखने के सियासी मायने
अल्पसंख्यक 'दलित बौद्ध' सम्प्रदाय से आने वाले निवर्तमान प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) बी. आर. गवई ने जाते-जाते एक नया वैचारिक-वैधानिक विचार विस्फोट कर गए, जिसके दूरगामी न्यायिक और सियासी असर होंगे। इसलिए इसके कुछेक मायने अहम हैं। बताते चलें कि फॉर्मर चीफ जस्टिस गवई ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के ल कॉलेजियम प्रणाली का गत रविवार को पुरजोर बचाव किया, साथ ही अनुसूचित जाति-जनजाति (एससी-एसटी) कोटा से क्रीमी लेयर यानी संपन्न लोगों को बाहर रखने का समर्थन किया। वहीं, शीर्ष अदालत में अपने कार्यकाल कदौरान किसी भी महिला न्यायाधीश की नियुक्ति नहीं करने पर खेद व्यक्त किया। 

दरअसल, अपने आधिकारिक आवास पर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संस्थानों के जागरूक पत्रकारों के साथ अनौपचारिक बातचीत में 52वें प्रधान न्यायाधीश गवई ने कहा कि वह संस्था को ‘‘पूर्ण संतुष्टि और संतोष की भावना के साथ’’ छोड़ रहे हैं और सेवानिवृत्ति के बाद कोई भी कार्यभार स्वीकार नहीं करने के अपने संकल्प पर कायम रहेंगे। उल्लेखनीय है कि वह पहले बौद्ध सीजेआई होने के अलावा के. जी. बालकृष्णन के बाद भारतीय न्यायपालिका का नेतृत्व करने वाले दूसरे दलित हैं। इसलिए जाते जाते उन्होंने जो कुछ भी टिप्पणी की है, उससे निकट भविष्य में न्यायपालिका और सियासत दोनों के प्रभावित होने की अटकलें तेज हो चुकी हैं। जब निवर्तमान प्रधान न्यायाधीश ने यह कहा कि, ‘‘मैंने पदभार ग्रहण करते समय ही स्पष्ट कर दिया था कि मैं सेवानिवृत्ति के बाद कोई भी आधिकारिक कार्यभार स्वीकार नहीं करूंगा। अगले 9 से 10 दिन ‘कूलिंग ऑफ’ अवधि है। उसके बाद एक नयी पारी शुरू करूँगा।’’ 

इसे भी पढ़ें: Yes Milord: साफ-साफ बोले, घुमाओ मत... केंद्र सरकार पर इतना क्यों भड़के CJI गवई

# सीजेआई गवई ने एससी-एसटी आरक्षण में भी क्रीमी लेयर का सिद्धांत लागू करने के वकालत की भी बात कही 


सीजेआई गवई ने एससी-एसटी आरक्षण में भी क्रीमी लेयर का सिद्धांत लागू करने के वकालत की। उन्होंने ओबीसी आरक्षण में क्रीमी लेयर के सिद्धांत के लागू होने और एससी-एसटी आरक्षण में क्रीमीलेयर के लागू नहीं हो पाने की सियासी वजहों और व्यक्तिगत न्यायिक दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए कहा कि वह खुद एससी-एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर की अवधारणा को लागू करने के पक्षधर हैं। इससे जरूरतमंदों को फायदा पहुंचेगा।

मसलन, अपने कार्यकाल के आखिरी दिन भी चीफ जस्टिस बीआर गवई ने आरक्षण से जुड़े उस महत्वपूर्ण मामले को उठाया, जिस पर वह बोलते रहे हैं। उन्होंने अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति (एससी-एसटी) में भी क्रीमीलेयर लागू करने की वकालत की। देखा जाए तो चीफ जस्टिस गवई ने इस मुद्दे से जुड़े जिन पहलुओं को उठाया, वे अपनी जगह पर बिल्कुल सही है और हमारे राजनीतिक नेतृत्व द्वारा उन पर गम्भीरता पूर्वक गौर किया जाना चाहिए।

अनुसूचित जातियों के संपन्न लोगों को आरक्षण के लाभों से वंचित करने के लिए क्रीमी लेयर की अवधारणा लागू करने पर अपने विचारों का पुरज़ोर बचाव करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘अगर ये लाभ बार-बार एक ही परिवार को मिलते रहेंगे, तो वर्ग के भीतर वर्ग उभर आएगा। आरक्षण उन लोगों तक पहुंचना चाहिए जिन्हें इसकी सचमुच ज़रूरत है।’’ उन्होंने सवाल किया, ‘‘अगर किसी मुख्य सचिव के बेटे या गांव में काम करने वाले भूमिहीन मज़दूर के बच्चे को... किसी आईएएस या आईपीएस अधिकारी के बेटे से प्रतिस्पर्धा करनी पड़े... तो क्या यह समान स्तर पर होगा?’’ 
  
 न्यायमूर्ति गवई ने आगाह किया कि इस तरह के कदम उठाये बिना, आरक्षण का लाभ पीढ़ी दर पीढ़ी कुछ परिवारों द्वारा हथिया लिया जाता है, जिससे ‘‘वर्ग के भीतर वर्ग’’ का निर्माण होता है। हालांकि, उन्होंने स्पष्ट किया कि इस मुद्दे पर अंतिम निर्णय ‘‘सरकार और संसद को लेना है।’’ आरक्षण के जनहितकारी उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए चीफ जस्टिस गवई ने कहा कि रिजर्वेशन उसी को मिलना चाहिए, जो जरूरतमंद है। क्योंकि आरक्षण का उद्देश्य भी सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना और ऐतिहासिक रूप से पिछड़े वर्गों को आगे बढ़ने के लिए समान अवसर प्रदान करना है। लेकिन पिछड़े वर्गों के भीतर भी जो आगे बढ़ चुके हैं, उन्हे हमेशा के लिए यह लाभ नहीं मिलना चाहिए।

कहना न होगा कि आरक्षण में क्रीमी लेयर का सवाल बहुत ही पुराना मुद्दा है यानी क्रीमीलेयर का सवाल बिल्कुल नया नहीं है। बल्कि तमिलनाडु सरकार ने 1969 में पिछड़े वर्गों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए सत्तनाथन कमिशन का गठन किया था, जिसने क्रीमीलेयर का कॉन्सेप्ट पेश किया। वहीं, 1986 में कर्नाटक सरकार से जुड़े एक मुकदमे में शीर्ष अदालत ने कहा था कि राज्य सरकार को आर्थिक आधार पर जांच लागू करनी चाहिए ताकि सही लोगों को आरक्षण का लाभ मिल सके।

यही वजह है कि सीजेआई ने क्रीमी लेयर के मसले पर अपनी दो टूक राय रखी, क्योंकि यह ओबीसी आरक्षण में पहले से ही लागू है। इस मामले में इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ का मुकदमा नजीर बन चुका है। इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से ज्यादा नहीं रखने और ओबीसी में क्रीमीलेयर लागू करने का फैसला दिया था। इसके बाद केंद्र ने एक आयोग गठित किया, ताकि क्रीमीलेयर परिभाषित हो सके। 

सवाल है कि जब एक वर्ग में प्रशासनिक क्राइटेरिया तय है, तो इसे दूसरे वर्गों में भी आजमाने में दिक्कत नहीं आनी चाहिए। ताकि सभी तक फायदा पहुंचे। उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल अगस्त 2024 में ही एससी-एसटी कैटिगरी के भीतर सब-कैटिगरी को मंजूरी दी थी। इसका मकसद यही था कि वर्ग के भीतर मौजूद हर जाति तक आरक्षण का फायदा पहुंचे और कोई खास तबका ही लाभान्वित न होता रहे। 

सच कहा जाए तो क्रीमीलेयर भी इसी मकसद के लिए जरूरी है। 50 साल पहले जस्टिस कृष्ण अय्यर ने आरक्षण की इसी खामी की ओर ध्यान दिलाया था कि चूंकि समाज का ऊपरी तबका सारे लाभ ले जाता है। इसलिए सभी के लिए मौका सुनिश्चित करने की संसदीय पहल अविलंब शुरू की जानी चाहिए। इस अहम मुद्दे पर दलगत भावना से ऊपर उठकर कार्य करना चाहिए। 

चूंकि पूरे देश में इस समय आरक्षण की सीमा को लेकर चर्चा है। यह एक बड़ी मांग है कि 50 प्रतिशत लिमिट नहीं होनी चाहिए। लेकिन, अगर जरूरतमंदों को फायदा नहीं मिल रहा, तो कोई भी लिमिट आरक्षण के उद्देश्य को पूरा नही कर सकती है। इसलिए विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में जो लोग आरक्षण का लाभ लेकर आगे बढ़ चुके है, उन्हें दूसरों का रास्ता रोकने के बजाय, आगे से हटकर पीछे वालों को रास्ता देना चाहिए। आखिर सांसद, विधायक, सरकारी अधिकारी-कर्मचारी, न्यायधीशों के पुत्र-पुत्रियां या उनके आश्रित जब पुनः आरक्षण का लाभ लेते हैं तो यह आरक्षण के सिद्धांत का दुरुपयोग है। 

विगत लगभग 8 दशकों से जारी इस पक्षपात पर खामोश विधायिका को अब कठघरे में खड़ा करने का वक्त आ गया है। इस पर कुतर्क गढ़ रहे बुद्धिजीवियों की नकेल भी कसनी चाहिए। इसी में भारतीय समाज का हित निहित है। तभी तो अपने कार्यकाल के अंतिम दिन न्यायमूर्ति गवई ने लगभग सभी महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात की, जिनमें जूता फेंके जाने की घटना, लंबित मामले, राष्ट्रपति के राय मांगे जाने पर उनके फैसले की आलोचना, अनुसूचित जातियों में क्रीमी लेयर को आरक्षण के लाभ से बाहर रखने पर उनके विवादास्पद विचार तथा उच्च न्यायपालिका में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व शामिल थे।

# सीजेआई गवई ने कॉलेजियम प्रणाली का पुरजोर बचाव किया


वहीं, कॉलेजियम प्रणाली का पुरजोर बचाव करते हुए उन्होंने कहा कि यह ‘‘न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखने’’ में मदद करती है। यह स्वीकार करते हुए कि कोई भी व्यवस्था पूर्णतः परिपूर्ण नहीं होती, उन्होंने कहा कि यह न्यायाधीशों के ‘‘चयन के लिए बेहतर है’’ क्योंकि वकील ‘‘प्रधानमंत्री या कानून मंत्री के सामने आकर बहस नहीं करते।’’ उन्होंने कहा, ‘‘इस बात की आलोचना होती है कि न्यायाधीश स्वयं नियुक्ति करते हैं। लेकिन इससे स्वतंत्रता सुनिश्चित होती है। हम खुफिया ब्यूरो की जानकारी और सरकार के विचारों पर भी राय जाहिर करते हैं, लेकिन अंतिम निर्णय कॉलेजियम का होता है।’’ 

वहीं, विधेयकों पर राज्यपालों के निर्णयों से जुड़ी समय-सीमा के मुद्दे पर न्यायमूर्ति गवई ने कहा, ‘‘संविधान न्यायालय को ऐसी समय-सीमा की व्याख्या करने की अनुमति नहीं देता जहां कोई समय-सीमा मौजूद ही न हो। लेकिन हमने कहा है कि राज्यपाल अनिश्चित काल तक विधेयक को रोक कर नहीं रख सकते। अत्यधिक विलंब होने पर न्यायिक समीक्षा का विकल्प उपलब्ध है।’’ उन्होंने ‘‘शक्तियों के पृथक्करण’’ का हवाला दिया और कहा कि जबकि राज्यपाल ‘‘अंतहीन समय तक विधेयक को रोक कर नहीं रख सकते’’ और सीमित न्यायिक समीक्षा उपलब्ध है, न्यायपालिका संविधान में कुछ ऐसी व्याख्या नहीं कर सकती जो संविधान में नहीं है। 

उल्लेखनीय है कि राजनीतिक कार्यकर्ता रामकृष्ण एस. गवई के पुत्र, न्यायमूर्ति गवई ने सामाजिक कार्य शुरू करने के बारे में कहा कि यह ‘‘उनके खून में’’ है और वह अपने गृह जिले अमरावती में आदिवासी कल्याण के लिए काम करते हुए समय बिताना चाहते हैं। वहीं, लंबित मामलों को एक ‘‘बड़ी समस्या’’ बताते हुए, उन्होंने कहा कि उनके नेतृत्व में शीर्ष अदालत ने मामलों को श्रेणीबद्ध किये जाने और वर्गीकरण के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) का उपयोग शुरू किया और इससे निपटना ‘‘सर्वोच्च प्राथमिकता’’ होनी चाहिए। 

निवर्तमान प्रधान न्यायाधीश ने अपने कार्यकाल के दौरान शीर्ष न्यायालय में महिला न्यायाधीश की नियुक्ति न कर पाने पर खेद व्यक्त किया, लेकिन स्पष्ट किया कि ऐसा प्रतिबद्धता की कमी के कारण नहीं हुआ। उन्होंने कहा, ‘‘कॉलेजियम के फैसलों में कम से कम चार न्यायाधीशों की सहमति जरूरी है। आम सहमति जरूरी है। ऐसा कोई नाम नहीं आया जिसे कॉलेजियम सर्वसम्मति से मंज़ूरी दे सके।’’ 
    
फिर न्यायमूर्ति विपुल मनुभाई पंचोली को उच्चतम न्यायालय में पदोन्नत करने की कॉलेजियम की सिफारिश पर न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना की लिखित असहमति के बारे में सवाल पूछा गया। उन्होंने कहा, ‘‘ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। अगर असहमति में कोई दम होता, तो उस पर चार अन्य न्यायाधीशों को भी सहमत होना चाहिए।'' उन्होंने कहा, ‘‘आप अपने समक्ष मौजूद कागजों के आधार पर फ़ैसला करें। सरकार जीत सकती है या हार सकती है। आज़ादी इस बात से नहीं मापी जाती कि आप कितनी बार केंद्र के खिलाफ फ़ैसला सुनाते हैं।’’

वहीं, न्यायमूर्ति गवई ने उस अभूतपूर्व और चौंकाने वाली घटना का भी ज़िक्र किया, जिसमें एक बुज़ुर्ग वकील ने उनके न्यायालय कक्ष में उनकी ओर जूता फेंका था। भगवान विष्णु के बारे में उनकी कथित टिप्पणी को लेकर वकील ने ऐसा किया था। यह पूछे जाने पर कि उन्होंने वकील को ‘‘माफ़’’ क्यों किया, उन्होंने कहा, ‘‘मुझे लगता है कि यह वह फ़ैसला था जो मैंने सहज रूप से लिया था, शायद बचपन में विकसित हुई सोच के कारण। मैंने सोचा कि सही यही होगा कि उसे अनदेखा कर दिया जाए।’’ 
    
अदालती कार्यवाही में सोशल मीडिया की भूमिका पर, उन्होंने ‘लाइव-स्ट्रीम’ की गई सामग्री की गलत रिपोर्टिंग और दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त की। न्यायमूर्ति गवई ने कहा, ‘‘... शायद अगले प्रधान न्यायाधीश इसकी जांच कर सकते हैं।’’ उन्होंने जूता फेंके जाने की घटना के ‘एआई-जनरेटेड’ मीम और वीडियो का हवाला देते हुए यह कहा। मृत्युदंड की समाप्ति पर उन्होंने कहा कि यह सजा दुर्लभ में दुर्लभतम मामलों में दी जाती है और इसके अलावा, एक न्यायाधीश के रूप में उन्होंने न्यायपालिका में अपने दो दशक से अधिक के करियर के दौरान कभी भी मृत्युदंड नहीं दिया। 
     
उन्होंने यह भी कहा कि अगर न्यायाधीशों के रिश्तेदार योग्य हैं तो उन्हें वंचित नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि न्यायाधीश पद के लिए सिफारिश करते समय उनकी कड़ी जांच की जाती है। न्यायमूर्ति गवई, जिन्होंने शीर्ष न्यायालय के कर्मचारियों की नियुक्तियों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), एससी और (अनुसूचित जनजाति) एसटी के लिए कोटा लागू किया था, ने इस दावे का खंडन किया कि शीर्ष न्यायालय में महिला कर्मचारियों की संख्या कम है।

उन्होंने यह भी बताया कि सरकार ने उनके कार्यकाल के दौरान कॉलेजियम द्वारा अनुशंसित लगभग सभी नामों को मंजूरी दे दी। यह पूछे जाने पर कि क्या प्रधानमंत्री द्वारा प्रधान न्यायाधीश के आवास पर जाने से न्यायिक स्वतंत्रता प्रभावित होती है, उन्होंने टिप्पणी करने से इनकार कर दिया।

- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक