एक आकाशीय गोला, जो संस्कृत मंत्र सुनते ही जाग जाता है

The Buga Sphere: कोलंबिया, दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप का सबसे उत्तरी देश है। बूगा, 1 लाख 15 हज़ार की जनसंख्या वाला वहां का एक छोटा-सा सुंदर शहर है। 2 मार्च, 2025 के दिन वहां एक ऐसी अनोखी घटना हुई, जो पूरी दुनिया में आम लोगों ही नहीं, वैज्ञानिकों के ...

Dec 3, 2025 - 16:35
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एक आकाशीय गोला, जो संस्कृत मंत्र सुनते ही जाग जाता है


The Buga Sphere: कोलंबिया, दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप का सबसे उत्तरी देश है। बूगा, 1 लाख 15 हज़ार की जनसंख्या वाला वहां का एक छोटा-सा सुंदर शहर है। 2 मार्च, 2025 के दिन वहां एक ऐसी अनोखी घटना हुई, जो पूरी दुनिया में आम लोगों ही नहीं, वैज्ञानिकों के बीच भी चर्चा का एक गहन विषय बन गई है।

 

हु्आ यह कि उस दिन के तीसरे प्रहर, आकाश से फुटबॉल की गेंद जितना बड़ा, धातु का बना एक रहस्यमय गोला बूगा शहर के एक बाहरी हिस्से में खेतों के पास की झाड़ियों में गिरा। वह कोई आवाज़ नहीं पैदा कर रहा था। पर उसका रंग बार-बार बदल रहा था। गिरने से पहले वह बिजली के एक हाई वोल्टेज केबल से टकराया बताया जाता है, जिसके कारण शहर के एक बड़े हस्से की बिजली गुल हो गई। गोले के गिरने तक की उसकी उड़ान को कई लोगों ने देखा। दो व्यक्तियों ने इस दृश्य की अपने स्मार्ट फ़ोन से वीडियो रिकॉर्डिंग भी कर ली।

 

यह गोला इस बीच 'बूगा स्फ़ीयर' के नाम से प्रसिद्ध हो गया है और अपूर्व हलचल मचा रहा है। वैज्ञानिकों ने एक ऐसी चीज़ पहले कभी नहीं देखी थी। उसके बारे में कही जा रही बातों में से सबसे चमत्कारिक बात यह है कि चांदी के रंग जैसी चमचमाती धातु का बना यह रहस्यमय गोला, प्रयोगशाला में अपने निकट संस्कृत मंत्रों का उच्चार होते ही ऐसी हरकतें करने लगता है, मानो वह संस्कृत मंत्रों को सुनते ही जाग जाता है।

 

संस्कृत मंत्रों से लगाव : संस्कृत मंत्रों को सुनते ही कंप्यूटर से जुड़े मॉनीटर पर ध्वनि-ग्राफ़ बनने लगते हैं। गोले का तापमन घटने लगता है, पर उसके भीतर की ऊर्जा बढ़ने लगती है। अन्य भाषाओं, उनके गायन या वाद्य य़ंत्रों के संगीत से ऐसा कुछ भी नहीं होता। प्रयोगशाला में जांच-परख के ये परिणाम ध्वनि, पदार्थ और विज्ञान के अब के ज्ञात ज्ञान से मेल नहीं खाते बताए जा रहे हैं। बूगा गोले के संस्कृत भाषा के प्रति लगाव को आध्यात्मिक लोग इस बात की पुष्टि बताने लगे कि 'संस्कृत मंत्रोच्चार की ध्वनि ही सृस्टि संरचना की मूल फ्रीक्वेंसी है!'

 

यह बूगा गोला पूरी तरह निःशब्द प्रयोगशाला में भी किसी भी उपकरण, औज़ार या वाद्ययंत्र की ध्वनि, विकिरण (रेडिएशन) या यांत्रिक बल पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाता। प्रतिक्रिया केवल तब दिखाता बताया जाता है, जब संस्कृत में गायत्री मंत्र (ॐ भूर्भुवः स्व: ...) या उसी के जैसा कोई दूसरा मंत्रोच्चार होता है। ऐसा लगता है, मानो संस्कृत मंत्रोच्चार से इस निर्जीव-से दिखते धातु के गोले में जान आ जाती है। सोशल मीडिया पर चल रहे प्रयोगशाला वीडियो में यह गोला संस्कृत के मंत्रों जैसी ही ध्वनियों पर विद्युत चुम्बकीय तरंगों और कंपनों के साथ प्रतिक्रिया करता हुआ दिखाई देता है, लेकिन ये दावे वैज्ञानिक समुदाय द्वारा व्यापक रूप से स्वीकार नहीं किए जा रहे।

 

अनोखे गोले के अबूझ रहस्य : 2 मार्च, 2025 को मिले, उस समय लगभग 2 किलो और अब 8 किलो से अधिक भारी बताए जा रहे इस अनोखे गोले का रहस्य बूझने में लगे सभी वैज्ञानिक पूरी तरह अवाक हैं। मई और जुलाई 2025 के बीच इस गोले के गहन वैज्ञानिक विश्लेषण हुए। शोधकर्ताओं ने उसकी भौतिक और आंतरिक संरचना की जांच के लिए एक्स-रे स्कैनिंग, रेडियोग्राफिक इमेजिंग और धातुकर्मी परख सहित विभिन्न तकनीकों का उपयोग किया। गोले की भीतरी संरचना बहुत जटिल पाई गई। प्रारंभिक स्कैनिंग से पता चला कि वह तीन अलग-अलग धातुओं वाली परत से बना है। उनके बीच बहुत छोटे आकार के 18 गोले लगे हैं। गोले के केंद्र में कंप्यूटर चिप जैसा कुछ लगा है। गोले को औज़ारों से काटकर उसके भीतर झांकने का प्रयास विफल रहा। किसी भी औज़ार से वह कटता ही नहीं था।

 

गोले की रेडियोलॉजिकल इमेजिंग की गई और एक मेडिकल रेडियोलॉजिस्ट ने उसका प्रारंभिक विश्लेषण किया। निष्कर्ष जितने हैरान करने वाले हैं, उतने ही रोचक भी हैं: यह गोला एक ऐसी ठोस संरचना प्रतीत होता है, जिसमें उसके दोनों अर्धगोलों को आपस में जोड़ने के लिए बाहरी वेल्डिंग के कोई निशान नहीं हैं। स्कैनिंग में भीतर से वह धातुओं की तीन परतों का बना दिखता है। उसके भीतर कथित तौर पर कम घनत्व वाला एक नाभिक और 18 सूक्ष्म गोले होने के संकेत तथा ऑप्टिक फाइबर की वायरिंग जैसी संरचनाएं हैं। उसकी ऊपरी सतह पर बने, बिंदुओं के जैसे बाहरी निशान –– किसी बाहरी दबाव या औज़ारों के बजाय –– अंदर से बाहर की ओर उत्पन्न हुए प्रतीत होते हैं।

 

पूर्णतः चिकना और गोल : बूगा गोला पूर्णतः चिकना और गोल है। ज़मीन पर गिरने से किसी पिचक या खरोंच के कोई निशान नहीं मिले। बल्कि, यह पाया गया कि उस के भीतर सारे समय अत्यंत क्षीण कंपन-सा होता रहता है। यह कंपन सुनाई तो नहीं पड़ता, पर उसकी फ्रीक्वेंसी आस-पास के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को प्रभावित करती है। चुंबकत्वमापी ने उसमें किंचित घटता-बढ़ता चुंबकत्व पाया, जिसका किसी भी ज्ञात भौतिक बनावट से मेल नहीं बैठता। उसका वज़न समय के साथ बढ़ता गया बताया जाता है, पर हमेशा कुछ-न-कुछ घटता-बढ़ता रहता है।

 

यह रहस्यमय गोला किसी दूसरे ग्रह पर की दुनिया से आया एक संदेशवाहक भी हो सकता है। प्रयोगशाला जांच-परख के दौरान वैज्ञानिकों ने जब-जब उसे सटीक वज़न बाताने वाली इलोक्ट्रॉनिक मशीन पर रखा, तो हर बार उसका वज़न कुछ घटता-बढ़ता ही दिखा। उस पर पानी डालते ही पानी भाप बन जाता था, हलांकि गोले को छूने या तापमापी से जांचने पर, कमरे के तापमान की अपेक्षा उसका तापमान हमेशा कुछ कम ही, यानी ठंडा निकलता था।

 

इंटरनेट पर सनसनी : कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि बूगा गोला 'नेगेटिव मास इफेक्ट' के सिद्धांत के अनुसार काम करता है। इस काल्पनिक सिद्धांत के अनुसार, ऋणात्मक गुरुत्वाकर्षण और प्रकाश की गति से भी अधिक गति संभव है, भले ही ऐसा न तो कभी देखा गया और न कभी प्रमाणित हुआ है। इंटरनेट पर तब सनसनी फैल गई जब उस पर संस्कृत मंत्रों का प्रभाव दिखाया गया। कहा गया कि 'ओम नमः शिवाय' और 'ओम नमो भगवते वसुदेवाय' जैसे मंत्र गाने पर यह गोला कंपन करने लगा, हल्की-सी गूंज भी होने लगी और वह हिलने लगा। मानो, वह संस्कृत शब्दों के उच्चारण और पृथ्वी पर संस्कृत काल की ध्वनियों से सुपरिचित है।

 

संस्कृत की उपयोगिता : बूगा को किसी दूसरी दुनिया वाले ग्रह से आया एक परग्रही (एलियन) मानने और इस पर गर्व करने वाले लोग अटकलें लगाने लगे हैं, कि वह जहां से आया है, वहां के लोग प्राचीन भारत की देवभाषा संस्कृत को शायद बोलते-समझते होंगे, इसीलिए वह संस्कृत श्लोक सुनने पर अपनी प्रतिक्रिया दिखाता है। यदि ऐसा है, तो हमें सोचना होगा कि संस्कृत भाषा की आज स्वयं हमारे देश भारत में क्या स्वीकृति है? क्या वह एक उपेक्षित, केवल पूजा-पाठ और शादी-विवाह के समय ही काम आने वाली भाषा नहीं रह गई है? हम तो हिंदी में भी अग्रेज़ी शब्द ही नहीं, वाक्य तक ठूंसने के आदी हो गए हैं!

 

बूगा गोले की बाहरी सतह का तपमान हालांकि एकसमान स्थिर पाया गया, पर आस-पास के तापमान की अपेक्षा हमेशा कम –– जो हमारी भौतिकी (फ़िज़िक्स) के तापगतिकीय (थर्मोडाइनैमिक्स) वाले नियमों के सरासर विपरीत है। उसके भीतर से कोई आवाज़ या खनक नहीं आती। उसकी बाहरी सतह के बीच में इलेक्ट्रॉनिक चिप जैसी एक चौकोर आकृति है, इस आकृति को घेरे हुए कई अबूझ चिन्हों का एक घेरा है और इस घेरे के भी बाद, हमारे चंद्रमा के घटने-बढ़ने वाली चंद्रकला से मिलती-जुलती, 5 घुमावदार आकृतिया बनी हुई हैं।

 

बहुत ही उन्नत निर्माण विधि : गोले की बाहरी सतह पर के बिंदुओं जैसे निशान –– किसी बाहरी दबाव या औज़ारों के बजाय –– अंदर से बाहर की ओर उत्पन्न हुए प्रतीत होते हैं। नंगी आंखों से दिखाई देने वाले बाहरी प्रतीक या चिन्ह रेडियोग्राफ़ में दिखाई नहीं देते। इस गोले का अब कथित तौर पर धातुकर्म और संरचनात्मक परीक्षण किया जा रहा है। जांचों से मिले अब तक के आंकड़े बहुत ही उन्नत निर्माण विधि, अस्पष्ट आंतरिक इंजीनियरिंग और एक ऐसी उत्पत्ति की ओर इशारा करते हैं, जिसकी पहचान आसान नहीं है।

 

कुछ शोधकर्ताओं का दावा है कि यह अद्भुत गोला कम फ्रीक्वेंसी की रेडियो तरंगें पैदा करता है। उसकी सतह पर बने घेरे के सांकेतिक चिन्ह 'फ़ील्ड इक्वेशन' (क्षेत्र समीकरण) का हिस्सा हैं। क्षेत्र समीकरण एक गणितीय आंशिक अवकल-समीकरण है, जो किसी भौतिक क्षेत्र की गतिशीलता का वर्णन करता है और यह निर्धारित करता है कि समय और स्थान के साथ उसमें कैसे परिवर्तन होता है। यह किसी क्षेत्र के व्यवहार को निर्धारित करता है, जैसे कि आइंनश्टाइन के क्षेत्र-समीकरणों द्वारा वर्णित गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र या मैक्सवेल के समीकरणों द्वारा वर्णित विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र के प्रसंग में। ये समीकरण, भौतिकी में मूलभूत बलों और पदार्थों के साथ उनकी अन्योन्यक्रियाओं को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माने जाते हैं।

 

संदेशवाहक या अजूबा : प्रश्न उठता है कि दक्षिण अमेरिकी देश कोलंबिया के बूगा शहर के पास मिला यह गोला क्या किसी परग्रही (एलियन) सभ्यता का संदेशवाहक है या फिर मानव मस्तिष्क का ही बनाया हुआ कोई अजूबा है। कुछ शोधकर्ता कहते हैं कि यह कोई परग्रही पहेली है, तो कुछ वैज्ञानिक उसे मानव निर्मित एक कलात्मक परियोजना मानते हैं। कुछ दूसरों का मानना है कि यह गोला रहस्य और चर्चा का विषय बनने के लिए ही बना है। जुलाई, 2025 में प्रकाशित एक शोधपत्र में दावा किया गया था कि यह गोला 'नेगेटिव मास इफेक्ट' और 'टोपो टेम्पोरल रियैलिटि' जैसे सिद्धांतों के अनुसार काम करता है। लेकिन, ऐसे किसी भी निष्कर्ष की अब तक कठोर वैज्ञानिक पुष्टि नहीं हो सकी है। सच और झूठ के बीच की रेखा अभी भी धुंधली बनी हुई है।

 

एक जर्मन भौतिकशास्त्री ने भी बूगा गोले के रहस्य को जानने का प्रयास किया। उसके गिरने के स्थान बूगा के लोगों का कहना है कि यह जर्मन वैज्ञानिक, तीन दिनों तक अपनी जांच-परख करने के बाद, बिना कुछ बताए ही चला गया। अटकलें लगाई जाने लगीं कि शायद उसे कुछ ऐसा मिला, जिसे वह बताना ही नहीं चाहता था। 

 

फ्लोरिडा में भी मिला था ऐसा ही एक गोला : ऐसा भी नहीं है कि 2 मार्च, 2025 को बूगा में मिला आकाशीय गोला ही अपने ढंग का एकमात्र रहस्य है। एक ऐसा ही रहस्यमय गोला 1974 में अमेरिका के फ्लोरिडा में भी मिला था। उसे 'बेट्ज़ स्फ़िअर' (Betz Sphere) नाम दिया गया था। वह भी बूगा वाले गोले के समान ही धातु का बना चमकीला तथा पूर्णतः गोलकार था और बूगा जैसी ही गतिविधियां करता था। उसे भी किसी परग्रही दुनिया से आया माना गया था। कहा तो यह भी जाता है कि अमेरिका में आज भी 'बेट्ज़ स्फ़िअर' की रहस्यमयी तकनीक को जानने के शोधकार्य हो रहे हैं।

 

1974 में 'बेट्ज़ स्फ़िअर' और अब बूगा गोला मिलने से, यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि यदि वे सचमुच हमारी आकाशगंगा के किसी ग्रह या ब्रह्मांड के किसी दूसरे भाग से आए हैं, तो उन्हें भेजने वाले उनके माध्यम से हमें क्या बताना चाहते हैं? हमें क्या संदेश देना चाहते हैं? यदि वे चाहते हैं कि हम उनसे संपर्क करें, बताएं कि हम कौन हैं और कहा हैं, तो उन्हें भी किसी न किसी तरीके से हमें भी बताना होगा कि उनका क्या अता-पता है? वे हम से क्यों संपर्क करना चाहते हैं और यह संपर्क, संदेश-भेजने पाने के किस माध्यम से हो सकता है?

 

समस्या यह भी होगी कि हम कैसे विश्वास करें कि ऐसा कोई संपर्क हमारे लिए कोई संकट या महासंकट नहीं बनेगा। यूट्यूब पर ऐसे कई पॉडकास्ट मिलते हैं, जिनमें अमेरिकी सेना में ऊंचे अधिकारी रह चुके और अब सेवानिवृत्त कुछ लोग, अपने सेवाकाल के दौरान या बाद में अमेरिकी ज़मीन पर परग्रहियों (एलियन) से मिलने और उनके अंतरिक्षयानों के भीतर जाकर सबकुछ देख सकने के अनुभव सुनाते हैं। उनके वर्णन यदि सच और विश्वसनीय हैं, तो लगता यही है कि दूर अंतरिक्ष में ऐसे अनेक ग्रह हो सकते हैं, जहां के निवासी हम पृथ्वीवासियों से बहुत पहले ही अंतरिक्ष में दूर-दूर तक घूम-फिर रहे हैं। वे शायद हमारी पृथ्वी पर भी घूम रहे हैं। हमारे पैर तो अभी तक केवल निर्जन चंद्रमा पर ही पड़े हैं। मंगल पर बस कुछ रोवर विचरण कर रहे हैं–– किसी आदमी के पैर वहां पड़ने में भी अभी समय लगेगा। ऐसे में हमें दूर-दूर के सपने देखना भी चाहिए या नहीं!