प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की साइप्रस यात्रा के मायने

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साइप्रस, कनाडा और क्रोएशिया की अपनी अत्यंत महत्वपूर्ण यात्रा के पहले चरण में यूरोपीय संघ के सदस्य देश साइप्रस पहुंचे, जो भारत का पुराना मित्र भी है। राष्ट्रपति निकोस क्रिस्टोडुलाइड्स ने हवाई अड्डे पर पहुंचकर उनका जोरदार स्वागत किया। बाद में, उन्होंने पीएम मोदी को वहां के सर्वोच्च सम्मान से अलंकृत भी किया, जो भारत और साइप्रस के प्रगाढ़ होते संबंधों को दर्शाता है। पीएम मोदी की तीन देशों की इस यात्रा का प्रमुख उद्देश्य भारत के वैश्विक संबंधों को मजबूत करना, आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक सहयोग को बढ़ावा देना तथा वैश्विक दक्षिण (ग्लोबल साउथ) की प्राथमिकताओं को लेकर कूटनीतिक प्रयासों को और तेज करना है। देखा जाए तो उपर्युक्त तीन देशों में भी साइप्रस का भारत के लिए अत्यंत विशेष महत्व है। हालांकि, अब तक हमने इस ओर कम ही ध्यान दिया है। तभी तो, लगभग 22 वर्षों के बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने साइप्रस का आधिकारिक दौरा किया है। इससे पहले 1983 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने और 2002 में प्रधानमंत्री रहते अटल बिहारी वाजपेयी ने रिपब्लिक ऑफ साइप्रस की आधिकारिक यात्रा की थी। बहरहाल, पीएम मोदी के साइप्रस दौरे से दोनों देशों के संबंधों में आई मधुरता, एकजुटता और आपसी सहयोग की भावना आने वाले समय में तुर्कीए की नींद हराम करने वाली साबित होगी, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए।दरअसल, पीएम मोदी के इस दौरे का उद्देश्य केवल भारत और साइप्रस के बीच मित्रता को बढ़ाना नहीं, बल्कि भारत के खिलाफ विशेषकर कश्मीर के मुद्दे पर खुलकर बोलते रहने वाले एवं पाकिस्तान को सैन्य तथा कूटनीतिक समर्थन और सहयोग प्रदान करते रहने वाले साइप्रस के पड़ोसी तुर्कीए को सख्त संदेश देना भी है कि भारत उसकी हरकतों का जवाब देना अच्छी तरह से जानता है। वहीं, भारत का साइप्रस के साथ खड़े होना तुर्कीए के लिए साफ संदेश है कि भारत उसके खिलाफ उन देशों का समर्थन कर करता रहेगा, जो तुर्कीए की आक्रामकता से परेशान हैं। तात्पर्य यह कि भारत ने तुर्कीए की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। साथ ही, पीएम मोदी की इस यात्रा से यह उम्मीद भी जगी है कि यह दोनों देशों के बीच की मित्रता को और प्रगाढ़ करने के अलावा आपसी व्यापार, संस्कृति एवं रक्षा सहयोग को बढ़ावा देने में भी प्रभावी साबित होगा। यह उम्मीद निराधार भी नहीं है, क्योंकि साइप्रस की भौगोलिक स्थिति इसे भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण बनाती है। बता दें कि यह भूमध्य सागर में तुर्कीए के दक्षिण में, लेवांत (सीरिया-लेबनान-फिलिस्तीन-इजरायल) के पश्चिम में और स्वेज नहर के निकट स्थित है। यानी साइप्रस यूरोप, एशिया और अफ्रीका के बीच एक अत्यंत महत्वपूर्ण पड़ाव है, जो भारत-मध्य-पूर्व-यूरोप कॉरिडोर (आइएमईसी) के लिए एक बेहद महत्वपूर्ण कड़ी साबित हो सकता है।इसे भी पढ़ें: साइप्रस यात्रा के जरिए तुर्की को कूटनीतिक जवाबआइएमईसी एक ऐसा व्यापारिक कॉरिडोर अथवा रास्ता है, जो भारत को मध्य-पूर्व के रास्ते यूरोप से जोड़ सकता है। यदि साइप्रस को इस कॉरिडोर में शामिल कर लिया जाए तो न केवल व्यापारिक गतिविधियों को आगे बढ़ाने, बल्कि तुर्कीए की अनपेक्षित हेकड़ी को बंद करने में भी सफलता मिल सकती है। दरअसल, इसी उद्देश्य से भारत ने हाल के वर्षों में तुर्कीए के तमाम विरोधी देशों, जिनमें ग्रीस, आर्मेनिया, मिस्र और साइप्रस के साथ अपने संबंधों को मजबूती प्रदान करने के प्रयास किए हैं। इस क्रम में ग्रीस, आर्मेनिया, और मिस्र के साथ मित्रता एवं व्यापारिक तथा सामरिक संबंधों को मजबूत करने के उद्देश्य से पीएम मोदी उन देशों के दौरे पहले ही कर चुके हैं। अब, उनकी यह साइप्रस यात्रा तुर्कीए को चारों तरफ से घेरने के भारत के रणनीतिक अभियान का ही एक हिस्सा प्रतीत होती है। वैसे, भारत के लिए साइप्रस की मित्रता हमेशा से बेहद महत्वपूर्ण रही है। बता दें कि संकट काल में साइप्रस ने हमेशा भारत का साथ दिया है, चाहे 1998 में भारत के परमाणु परीक्षण के बाद का समय हो, जब हम दुनिया में अलग-थलग पड़ने लगे थे या 2008 में भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के समय अथवा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता के लिए वैश्विक समर्थन जुटाने का मामला हो। इसके अतिरिक्त, आतंकवाद और कश्मीर जैसे मुद्दों पर भी साइप्रस ने पाकिस्तान या तुर्कीए के बजाए हमेशा भारत का साथ दिया है।वहीं, भारत भी हमेशा से साइप्रस की एकता और अखंडता का समर्थन करता रहा है, बल्कि भारत की तो यह मांग रही है कि साइप्रस का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र के नियमों और अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अंतर्गत हल किया जाए। बता दें कि साइप्रस और तुर्कीए का संघर्ष 1974 से ही चला आ रहा है, जब ग्रीस के समर्थन से साइप्रस में तख्तापलट हुआ था, ताकि साइप्रस को ग्रीस के साथ मिलाया जा सके। यही वह समय था, जब तुर्कीए ने साइप्रस के उत्तरी हिस्से पर हमला कर उसे अपने कब्जे में ले लिया था, जिसके बाद से ही साइप्रस दो भागों में बंटा हुआ है। साइप्रस का दक्षिणी भाग ‘ग्रीक साइप्रियट्स’ अथवा ‘रिपब्लिक ऑफ साइप्रस’ कहलाता है, जिसे विश्व भर के देशों से मान्यता मिली हुई है। वहीं, इसका उत्तरी भाग ‘तुर्की साइप्रियट्स’ के नाम से जाना जाता है। इसे तुर्कीए ने ‘तुर्की रिपब्लिक ऑफ नॉर्दर्न साइप्रस’ घोषित किया हुआ है, लेकिन इसे अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त नहीं है। तुर्कीए ने उत्तरी साइप्रस में अपनी सेना तैनात कर रखी है और समय-समय पर वहां की समुद्री सीमाओं पर भी अतिक्रमण करने का प्रयास करता रहता है। गौरतलब है कि साइप्रस की धरती में 12-15 ट्रिलियन क्यूबिक फीट प्राकृतिक गैस का भंडार मौजूद है, जिस पर तुर्कीए कब्जा करना चाहता है। इतना ही नहीं, तुर्कीए के हस्तक्षेप के कारण साइप्रस को अपनी ही गैस को निर्यात करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।यहां तक कि तुर्कीए साइप्रस के समुद्री क्षेत्र में अपने जहाज भेजकर गैस खोजने की कोशिशें भी कर चुका है, जिससे साइप्रस, ग्रीस और यूरोपीय संघ के साथ उस

Jun 18, 2025 - 14:40
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की साइप्रस यात्रा के मायने
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साइप्रस, कनाडा और क्रोएशिया की अपनी अत्यंत महत्वपूर्ण यात्रा के पहले चरण में यूरोपीय संघ के सदस्य देश साइप्रस पहुंचे, जो भारत का पुराना मित्र भी है। राष्ट्रपति निकोस क्रिस्टोडुलाइड्स ने हवाई अड्डे पर पहुंचकर उनका जोरदार स्वागत किया। बाद में, उन्होंने पीएम मोदी को वहां के सर्वोच्च सम्मान से अलंकृत भी किया, जो भारत और साइप्रस के प्रगाढ़ होते संबंधों को दर्शाता है। पीएम मोदी की तीन देशों की इस यात्रा का प्रमुख उद्देश्य भारत के वैश्विक संबंधों को मजबूत करना, आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक सहयोग को बढ़ावा देना तथा वैश्विक दक्षिण (ग्लोबल साउथ) की प्राथमिकताओं को लेकर कूटनीतिक प्रयासों को और तेज करना है। देखा जाए तो उपर्युक्त तीन देशों में भी साइप्रस का भारत के लिए अत्यंत विशेष महत्व है। हालांकि, अब तक हमने इस ओर कम ही ध्यान दिया है। तभी तो, लगभग 22 वर्षों के बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने साइप्रस का आधिकारिक दौरा किया है। इससे पहले 1983 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने और 2002 में प्रधानमंत्री रहते अटल बिहारी वाजपेयी ने रिपब्लिक ऑफ साइप्रस की आधिकारिक यात्रा की थी। बहरहाल, पीएम मोदी के साइप्रस दौरे से दोनों देशों के संबंधों में आई मधुरता, एकजुटता और आपसी सहयोग की भावना आने वाले समय में तुर्कीए की नींद हराम करने वाली साबित होगी, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए।

दरअसल, पीएम मोदी के इस दौरे का उद्देश्य केवल भारत और साइप्रस के बीच मित्रता को बढ़ाना नहीं, बल्कि भारत के खिलाफ विशेषकर कश्मीर के मुद्दे पर खुलकर बोलते रहने वाले एवं पाकिस्तान को सैन्य तथा कूटनीतिक समर्थन और सहयोग प्रदान करते रहने वाले साइप्रस के पड़ोसी तुर्कीए को सख्त संदेश देना भी है कि भारत उसकी हरकतों का जवाब देना अच्छी तरह से जानता है। वहीं, भारत का साइप्रस के साथ खड़े होना तुर्कीए के लिए साफ संदेश है कि भारत उसके खिलाफ उन देशों का समर्थन कर करता रहेगा, जो तुर्कीए की आक्रामकता से परेशान हैं। तात्पर्य यह कि भारत ने तुर्कीए की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। साथ ही, पीएम मोदी की इस यात्रा से यह उम्मीद भी जगी है कि यह दोनों देशों के बीच की मित्रता को और प्रगाढ़ करने के अलावा आपसी व्यापार, संस्कृति एवं रक्षा सहयोग को बढ़ावा देने में भी प्रभावी साबित होगा। यह उम्मीद निराधार भी नहीं है, क्योंकि साइप्रस की भौगोलिक स्थिति इसे भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण बनाती है। बता दें कि यह भूमध्य सागर में तुर्कीए के दक्षिण में, लेवांत (सीरिया-लेबनान-फिलिस्तीन-इजरायल) के पश्चिम में और स्वेज नहर के निकट स्थित है। यानी साइप्रस यूरोप, एशिया और अफ्रीका के बीच एक अत्यंत महत्वपूर्ण पड़ाव है, जो भारत-मध्य-पूर्व-यूरोप कॉरिडोर (आइएमईसी) के लिए एक बेहद महत्वपूर्ण कड़ी साबित हो सकता है।

इसे भी पढ़ें: साइप्रस यात्रा के जरिए तुर्की को कूटनीतिक जवाब

आइएमईसी एक ऐसा व्यापारिक कॉरिडोर अथवा रास्ता है, जो भारत को मध्य-पूर्व के रास्ते यूरोप से जोड़ सकता है। यदि साइप्रस को इस कॉरिडोर में शामिल कर लिया जाए तो न केवल व्यापारिक गतिविधियों को आगे बढ़ाने, बल्कि तुर्कीए की अनपेक्षित हेकड़ी को बंद करने में भी सफलता मिल सकती है। दरअसल, इसी उद्देश्य से भारत ने हाल के वर्षों में तुर्कीए के तमाम विरोधी देशों, जिनमें ग्रीस, आर्मेनिया, मिस्र और साइप्रस के साथ अपने संबंधों को मजबूती प्रदान करने के प्रयास किए हैं। इस क्रम में ग्रीस, आर्मेनिया, और मिस्र के साथ मित्रता एवं व्यापारिक तथा सामरिक संबंधों को मजबूत करने के उद्देश्य से पीएम मोदी उन देशों के दौरे पहले ही कर चुके हैं। अब, उनकी यह साइप्रस यात्रा तुर्कीए को चारों तरफ से घेरने के भारत के रणनीतिक अभियान का ही एक हिस्सा प्रतीत होती है। वैसे, भारत के लिए साइप्रस की मित्रता हमेशा से बेहद महत्वपूर्ण रही है। बता दें कि संकट काल में साइप्रस ने हमेशा भारत का साथ दिया है, चाहे 1998 में भारत के परमाणु परीक्षण के बाद का समय हो, जब हम दुनिया में अलग-थलग पड़ने लगे थे या 2008 में भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के समय अथवा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता के लिए वैश्विक समर्थन जुटाने का मामला हो। इसके अतिरिक्त, आतंकवाद और कश्मीर जैसे मुद्दों पर भी साइप्रस ने पाकिस्तान या तुर्कीए के बजाए हमेशा भारत का साथ दिया है।

वहीं, भारत भी हमेशा से साइप्रस की एकता और अखंडता का समर्थन करता रहा है, बल्कि भारत की तो यह मांग रही है कि साइप्रस का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र के नियमों और अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अंतर्गत हल किया जाए। बता दें कि साइप्रस और तुर्कीए का संघर्ष 1974 से ही चला आ रहा है, जब ग्रीस के समर्थन से साइप्रस में तख्तापलट हुआ था, ताकि साइप्रस को ग्रीस के साथ मिलाया जा सके। यही वह समय था, जब तुर्कीए ने साइप्रस के उत्तरी हिस्से पर हमला कर उसे अपने कब्जे में ले लिया था, जिसके बाद से ही साइप्रस दो भागों में बंटा हुआ है। साइप्रस का दक्षिणी भाग ‘ग्रीक साइप्रियट्स’ अथवा ‘रिपब्लिक ऑफ साइप्रस’ कहलाता है, जिसे विश्व भर के देशों से मान्यता मिली हुई है। वहीं, इसका उत्तरी भाग ‘तुर्की साइप्रियट्स’ के नाम से जाना जाता है। इसे तुर्कीए ने ‘तुर्की रिपब्लिक ऑफ नॉर्दर्न साइप्रस’ घोषित किया हुआ है, लेकिन इसे अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त नहीं है। तुर्कीए ने उत्तरी साइप्रस में अपनी सेना तैनात कर रखी है और समय-समय पर वहां की समुद्री सीमाओं पर भी अतिक्रमण करने का प्रयास करता रहता है। गौरतलब है कि साइप्रस की धरती में 12-15 ट्रिलियन क्यूबिक फीट प्राकृतिक गैस का भंडार मौजूद है, जिस पर तुर्कीए कब्जा करना चाहता है। इतना ही नहीं, तुर्कीए के हस्तक्षेप के कारण साइप्रस को अपनी ही गैस को निर्यात करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

यहां तक कि तुर्कीए साइप्रस के समुद्री क्षेत्र में अपने जहाज भेजकर गैस खोजने की कोशिशें भी कर चुका है, जिससे साइप्रस, ग्रीस और यूरोपीय संघ के साथ उसका तनाव बढ़ने की खबरें भी आती रही हैं। दरअसल, तुर्कीए का मानना है कि साइप्रस जैसे छोटे-से द्वीप को इतना बड़ा समुद्री क्षेत्र (ईईजेड) नहीं मिलना चाहिए। तुर्कीए के ये तमाम प्रयास ईईजेड से संबद्ध अंतरराष्ट्रीय कानूनों के खिलाफ हैं। जाहिर है कि यदि भारत साइप्रस के साथ संस्कृति, ऊर्जा, व्यापार या बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाता है, तो यह तुर्कीए के लिए बहुत बड़ा झटका साबित हो सकता है। वहीं, तुर्कीए की चतुर्दिक घेराबंदी और साइप्रस के साथ बढ़ते सहयोग एवं घनिष्ठता भारत की बढ़ती वैश्विक शक्ति एवं क्षमता का प्रतीक है।

− चेतनादित्य आलोक, 
वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार, स्तंभकार, आध्यात्मिक चिंतक एवं वास्तु ज्ञाता, रांची, झारखंड