आतंकवाद के मुकाबिल बदलती अमेरिकी नीतियों के दृष्टिगत अब भारत को बनानी होगी नई रणनीति?

आपको पता होना चाहिए कि दमिश्क/अम्मान से रायटर ने गत 2 जून 2025 दिन सोमवार को राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के दूत के हवाले से खुलासा करते हुए कहा है कि संयुक्त राज्य अमेरिका ने सीरिया के नए 'आतंकी/जेहादी' नेतृत्व द्वारा हजारों विदेशी जिहादी यानी पूर्व विद्रोही लड़ाकों को राष्ट्रीय सेना में शामिल करने की योजना को अपनी मंजूरी दे दी है, बशर्ते कि यह पारदर्शी तरीके से हो। जैसा कि तीन सीरियाई रक्षा अधिकारियों के हवाले से कहा गया है कि इस योजना के तहत, लगभग 3,500 विदेशी लड़ाके, मुख्य रूप से चीन और पड़ोसी देशों के उइगर, एक नवगठित इकाई, 84वीं सीरियाई सेना डिवीजन में शामिल होंगे, जिसमें सीरियाई भी शामिल होंगे। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ये लड़ाके अपनी पुरानी मानसिकता से उबर पाएंगे?उल्लेखनीय है कि अफगानिस्तान को आज तालिबानी जेहादी लड़ाके चला रहे हैं और पाकिस्तान में भी मुस्लिम आतंकवादी लड़ाके सेना का अंग बन चुके हैं जिसकी पुष्टि ऑपरेशन सिंदूर के बाद निकले जनाजे से हुई है। ये तो महज बानगी है। हकीकत यह है कि पूरी दुनिया के शातिर अपराधी कहीं लोकतंत्र के नाम पर, कहीं तानाशाही की आड़ में, कहीं साम्यवाद की छतरी तले और कहीं धर्मांध शासन की छत्रछाया में सेना, पुलिस या अन्य महकमों में घुस चुके हैं और पूंजीवादी टूल्स बनकर लोकतंत्र को कमजोर कर रहे हैं।इसे भी पढ़ें: डोनाल्ड ट्रंप का रवैया हैरान करने वाला- भारत को नए रास्ते पर जाना ही पड़ेगा!स्पष्ट है कि समसामयिक विश्व में 'आतंकवाद' एक अंतरराष्ट्रीय एजेंडा बन चुका है, जो पूंजीपतियों की शह पर लोकतंत्र को कमजोर करते हुए हथियारों व सुरक्षा उपकरणों के सौदागरों को बेहिसाब मुनाफे की गारंटी देता है। चूंकि इनके वैचारिक क्लोन बहुरूपिया बनकर कहीं अंडरवर्ल्ड के माफिया सरगना और उनके खूंखार अपराधियों के तौर पर, कहीं वामपंथी नक्सलियों के वेश में, कहीं जातीय-सांप्रदायिक-भाषाई शहंशाह के रूप में हर जगह अपनी गहरी जड़ें जमा चुके हैं, इसलिए इनका गोरखधंधा जमने में कभी भी देर नहीं लगती। चूंकि इसे रोकना भारत के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। क्योंकि दुनिया का थानेदार अमेरिका कभी सोवियत संघ (अब रूस) व उसके सहयोगियों को कमजोर करते हुए उनसे ही रणनीतिक मुनाफा कमाने के लिए बरास्ता पाकिस्तान-अफगानिस्तान-अरब देश इनको प्रोत्साहन व संरक्षण देता आया है, इसलिए इन आतंकवादियों का भविष्य उज्ज्वल है। वैसे तो रूस, चीन और भारत भी अमेरिकी पैंतरे को कमजोर करने के लिए अरब देशों में अपनी स्थिति मजबूत बनाने में जुटे हुए हैं, लेकिन गिरगिट की तरह रंग बदलती अमेरिकी चालों के समक्ष ये लाचार बन जाते हैं। वैसे तो चीन ने पाकिस्तान को साधकर अफगानिस्तान में व रूस ने भारत को साधकर ईरान में अमेरिका को कमजोर कर चुके हैं। इसलिए अमेरिका पाकिस्तान पर पुनः मेहरबानी दिखा रहा है। जबकि 9/11 यानी 11 सितंबर 2001 को संयुक्त राज्य अमेरिका पर कुख्यात आतंकवादी संगठन "अल-क़ायदा," द्वारा किये गए समन्वित आत्मघाती हमलों की एक श्रंखला से अमेरिका बौखला उठा और आतंकवादियों के खात्मे का निश्चय करके लगभग 24 वर्षों तक उनकी मुखालफत की। उल्लेखनीय है कि 9/11 को सबेरे, 19 अल कायदा आतंकवादियों ने चार वाणिज्यिक यात्री जेट वायुयानों का अपहरण कर लिया और वर्ल्ड ट्रेड टॉवर को क्षतिग्रस्त कर दिया। यही वजह है कि अमेरिका के खिलाफ अरब देशों में रूस-चीन को एक आधार मिल गया। यही वजह है कि 9/11 के ब्रेक के बाद तेजी से उसके लिए चुनौती बनते जा रहे चीन के खिलाफ अब एक बार फिर से वह अपनी पुरानी आतंकवादियों को मदद देने वाली नीतियों को नया विस्तार देने के मूड में आ चुका है। लिहाजा आतंकवाद के मुकाबिल बदलती अमेरिकी नीतियों के दृष्टिगत अब भारत को नई रणनीति बनानी होगी, अन्यथा आतंकवाद उस पर भारी पड़ जायेगा।स्वाभाविक सवाल है कि आखिर विगत लगभग अढाई  दशकों यानी 24-25 वर्षों तक आतंकवाद का भुक्तभोगी देश अमेरिका फिर से आतंकवादियों को मदद देने और पूंजीवादी अंडरवर्ल्ड से जुड़े सफेदपोश अपराधियों-मादक पदार्थों व हथियारों के तस्करों से उन्हें लामबंद कर उनको एक नया और क्रूर सांप्रदायिक आधार प्रदान करने के लिए क्यों आगे बढ़ रहा है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया से मिल रही छनी-छनाई खबरों के मुताबिक, अमेरिका फिर से अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठनों को तैयार कर रहा है। क्योंकि इस बार उसका निशाना चीन है!हालांकि, इस बात में कोई दो राय नहीं कि यह पुनः बरास्ता पाकिस्तान दक्षिण एशिया में भी पसरेगा, यानी भारत व भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य देशों में भी। चूंकि सीरिया में आतंकियों को सबसे अधिक समर्थन देने वाला देश तुर्की है, जो अब पाकिस्तान का सहयोगी है। उधर, अमेरिका व फ्रांस जैसे देश एक बार फिर से पाकिस्तान/तुर्की व सीरिया से भरोसे का सम्बन्ध विकसित करने लगे हैं, ताकि इनके ऊपर रूसी-चीनी प्रभाव को कम किया जा सके। वहीं सवाल यह भी है कि अब जब सीरिया का आतंकवादी शासन चीन में पैंतरा करेगा, तो क्या भारत में असर नहीं पड़ेगा? क्या तुर्की और खाड़ी देश यह गारंटी देंगे कि ये "धर्मभीरु इस्लामिक शैतान" भारत में परेशानी पैदा नहीं करेंगे? वहीं, सबसे सुलगता हुआ सवाल यह है कि क्या भारत व उसके अभिन्न सहयोगी रूस को इस मामले में गंभीर नहीं होना चाहिए? क्या भारत की विदेश नीति केवल भारत के भ्रष्ट, विचारहीन और अभिजात्य (इलीट) लोग ही तय करते रहेंगे? क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान में जो अस्सी और नब्बे के दशक में खेल हुआ, उससे हमारा देश भारत आज तक भी नहीं उबरा है। तब से अब तक आधा से अधिक देश बंदूकों के साये में जी रहा है। आपको यह भी पता होना चाहिए कि जहां आतंकवादी अमेरिकी पूंजीवादी औजार हैं, वहीं नक्सली चीनी पूंजीवादी हथियार। जबकि अंडरवर्ल्ड सरगना लोकल पूंजीवादी टूल्स। इन सबका एकमात्र मकसद लोकतंत्र यानी संख्या बल की आड़ में पूंजीपतियों के खिलाफ आवाज उठाने वाले नेताओं/उनके भक्त नौकरशाहों के दिलों में भय पैदा करना और अपना कारोबारी हित साधना। इसलिए इनकी मूल प्रवृत्ति

Jun 5, 2025 - 21:40
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आतंकवाद के मुकाबिल बदलती अमेरिकी नीतियों के दृष्टिगत अब भारत को बनानी होगी नई रणनीति?
आपको पता होना चाहिए कि दमिश्क/अम्मान से रायटर ने गत 2 जून 2025 दिन सोमवार को राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के दूत के हवाले से खुलासा करते हुए कहा है कि संयुक्त राज्य अमेरिका ने सीरिया के नए 'आतंकी/जेहादी' नेतृत्व द्वारा हजारों विदेशी जिहादी यानी पूर्व विद्रोही लड़ाकों को राष्ट्रीय सेना में शामिल करने की योजना को अपनी मंजूरी दे दी है, बशर्ते कि यह पारदर्शी तरीके से हो। जैसा कि तीन सीरियाई रक्षा अधिकारियों के हवाले से कहा गया है कि इस योजना के तहत, लगभग 3,500 विदेशी लड़ाके, मुख्य रूप से चीन और पड़ोसी देशों के उइगर, एक नवगठित इकाई, 84वीं सीरियाई सेना डिवीजन में शामिल होंगे, जिसमें सीरियाई भी शामिल होंगे। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ये लड़ाके अपनी पुरानी मानसिकता से उबर पाएंगे?

उल्लेखनीय है कि अफगानिस्तान को आज तालिबानी जेहादी लड़ाके चला रहे हैं और पाकिस्तान में भी मुस्लिम आतंकवादी लड़ाके सेना का अंग बन चुके हैं जिसकी पुष्टि ऑपरेशन सिंदूर के बाद निकले जनाजे से हुई है। ये तो महज बानगी है। हकीकत यह है कि पूरी दुनिया के शातिर अपराधी कहीं लोकतंत्र के नाम पर, कहीं तानाशाही की आड़ में, कहीं साम्यवाद की छतरी तले और कहीं धर्मांध शासन की छत्रछाया में सेना, पुलिस या अन्य महकमों में घुस चुके हैं और पूंजीवादी टूल्स बनकर लोकतंत्र को कमजोर कर रहे हैं।

इसे भी पढ़ें: डोनाल्ड ट्रंप का रवैया हैरान करने वाला- भारत को नए रास्ते पर जाना ही पड़ेगा!

स्पष्ट है कि समसामयिक विश्व में 'आतंकवाद' एक अंतरराष्ट्रीय एजेंडा बन चुका है, जो पूंजीपतियों की शह पर लोकतंत्र को कमजोर करते हुए हथियारों व सुरक्षा उपकरणों के सौदागरों को बेहिसाब मुनाफे की गारंटी देता है। चूंकि इनके वैचारिक क्लोन बहुरूपिया बनकर कहीं अंडरवर्ल्ड के माफिया सरगना और उनके खूंखार अपराधियों के तौर पर, कहीं वामपंथी नक्सलियों के वेश में, कहीं जातीय-सांप्रदायिक-भाषाई शहंशाह के रूप में हर जगह अपनी गहरी जड़ें जमा चुके हैं, इसलिए इनका गोरखधंधा जमने में कभी भी देर नहीं लगती। 

चूंकि इसे रोकना भारत के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। क्योंकि दुनिया का थानेदार अमेरिका कभी सोवियत संघ (अब रूस) व उसके सहयोगियों को कमजोर करते हुए उनसे ही रणनीतिक मुनाफा कमाने के लिए बरास्ता पाकिस्तान-अफगानिस्तान-अरब देश इनको प्रोत्साहन व संरक्षण देता आया है, इसलिए इन आतंकवादियों का भविष्य उज्ज्वल है। वैसे तो रूस, चीन और भारत भी अमेरिकी पैंतरे को कमजोर करने के लिए अरब देशों में अपनी स्थिति मजबूत बनाने में जुटे हुए हैं, लेकिन गिरगिट की तरह रंग बदलती अमेरिकी चालों के समक्ष ये लाचार बन जाते हैं। 

वैसे तो चीन ने पाकिस्तान को साधकर अफगानिस्तान में व रूस ने भारत को साधकर ईरान में अमेरिका को कमजोर कर चुके हैं। इसलिए अमेरिका पाकिस्तान पर पुनः मेहरबानी दिखा रहा है। जबकि 9/11 यानी 11 सितंबर 2001 को संयुक्त राज्य अमेरिका पर कुख्यात आतंकवादी संगठन "अल-क़ायदा," द्वारा किये गए समन्वित आत्मघाती हमलों की एक श्रंखला से अमेरिका बौखला उठा और आतंकवादियों के खात्मे का निश्चय करके लगभग 24 वर्षों तक उनकी मुखालफत की। 

उल्लेखनीय है कि 9/11 को सबेरे, 19 अल कायदा आतंकवादियों ने चार वाणिज्यिक यात्री जेट वायुयानों का अपहरण कर लिया और वर्ल्ड ट्रेड टॉवर को क्षतिग्रस्त कर दिया। यही वजह है कि अमेरिका के खिलाफ अरब देशों में रूस-चीन को एक आधार मिल गया। यही वजह है कि 9/11 के ब्रेक के बाद तेजी से उसके लिए चुनौती बनते जा रहे चीन के खिलाफ अब एक बार फिर से वह अपनी पुरानी आतंकवादियों को मदद देने वाली नीतियों को नया विस्तार देने के मूड में आ चुका है। लिहाजा आतंकवाद के मुकाबिल बदलती अमेरिकी नीतियों के दृष्टिगत अब भारत को नई रणनीति बनानी होगी, अन्यथा आतंकवाद उस पर भारी पड़ जायेगा।

स्वाभाविक सवाल है कि आखिर विगत लगभग अढाई  दशकों यानी 24-25 वर्षों तक आतंकवाद का भुक्तभोगी देश अमेरिका फिर से आतंकवादियों को मदद देने और पूंजीवादी अंडरवर्ल्ड से जुड़े सफेदपोश अपराधियों-मादक पदार्थों व हथियारों के तस्करों से उन्हें लामबंद कर उनको एक नया और क्रूर सांप्रदायिक आधार प्रदान करने के लिए क्यों आगे बढ़ रहा है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया से मिल रही छनी-छनाई खबरों के मुताबिक, अमेरिका फिर से अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठनों को तैयार कर रहा है। क्योंकि इस बार उसका निशाना चीन है!

हालांकि, इस बात में कोई दो राय नहीं कि यह पुनः बरास्ता पाकिस्तान दक्षिण एशिया में भी पसरेगा, यानी भारत व भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य देशों में भी। चूंकि सीरिया में आतंकियों को सबसे अधिक समर्थन देने वाला देश तुर्की है, जो अब पाकिस्तान का सहयोगी है। उधर, अमेरिका व फ्रांस जैसे देश एक बार फिर से पाकिस्तान/तुर्की व सीरिया से भरोसे का सम्बन्ध विकसित करने लगे हैं, ताकि इनके ऊपर रूसी-चीनी प्रभाव को कम किया जा सके। वहीं सवाल यह भी है कि अब जब सीरिया का आतंकवादी शासन चीन में पैंतरा करेगा, तो क्या भारत में असर नहीं पड़ेगा? क्या तुर्की और खाड़ी देश यह गारंटी देंगे कि ये "धर्मभीरु इस्लामिक शैतान" भारत में परेशानी पैदा नहीं करेंगे? 

वहीं, सबसे सुलगता हुआ सवाल यह है कि क्या भारत व उसके अभिन्न सहयोगी रूस को इस मामले में गंभीर नहीं होना चाहिए? क्या भारत की विदेश नीति केवल भारत के भ्रष्ट, विचारहीन और अभिजात्य (इलीट) लोग ही तय करते रहेंगे? क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान में जो अस्सी और नब्बे के दशक में खेल हुआ, उससे हमारा देश भारत आज तक भी नहीं उबरा है। तब से अब तक आधा से अधिक देश बंदूकों के साये में जी रहा है। 

आपको यह भी पता होना चाहिए कि जहां आतंकवादी अमेरिकी पूंजीवादी औजार हैं, वहीं नक्सली चीनी पूंजीवादी हथियार। जबकि अंडरवर्ल्ड सरगना लोकल पूंजीवादी टूल्स। इन सबका एकमात्र मकसद लोकतंत्र यानी संख्या बल की आड़ में पूंजीपतियों के खिलाफ आवाज उठाने वाले नेताओं/उनके भक्त नौकरशाहों के दिलों में भय पैदा करना और अपना कारोबारी हित साधना। इसलिए इनकी मूल प्रवृत्ति को भारतीय दलितों, ओबीसीज, ईडब्ल्यूएस को समझना होगा और अपनी ठोस रणनीति के सहारे इन्हें भारतीय महाद्वीप से दूर रखना होगा, अन्यथा भारत को अशांत रखने, इसे पुनः खंडित करने में दुनियावी पूंजीवादी ताकतें सफल हो सकती हैं।

- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक