भारतीय न्यायपालिका की स्वतंत्रता का बेजा इस्तेमाल के लिए दोषी कौन?

भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका की स्वतंत्रता अक्षुण्ण रखने के लिए जजों का स्वतंत्र रहना बहुत जरूरी है। लेकिन प्रतिष्ठित पदों पर रहते हुए कतिपय जजों ने जो कुछ कारनामें किए हैं, उसके दृष्टिगत न्यायपालिका में मूलभूत बदलाव नहीं करना जनतंत्र के लिए भी अहितकर साबित हो रहा है। इसलिए यक्ष प्रश्न है कि भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का बेजा इस्तेमाल के लिए आखिर में दोषी कौन है? और उसके खिलाफ त्वरित कार्रवाई करने, करवाने में न्यायिक प्रशासन या फिर कार्यपालक प्रशासन के हाथपांव क्यों फूलने लगते हैं? यदि पुरानी बातें छोड़ भी दें तो जस्टिस जे एस वर्मा के खिलाफ जितनी मंथर गति से कार्रवाई चल रही है, वह पूरी संवैधानिक व्यवस्था के लिए गम्भीर चिंता की बात है। इससे भ्रष्टाचार के संलिप्त लोगों को बढ़ावा मिलेगा।सुलगता सवाल है कि किसी भी मामले में जितनी ततपरता पूर्वक आम आदमी के खिलाफ कार्रवाई होती है, उतनी ही ततपरतापूर्वक कार्रवाई किसी खास आदमी के खिलाफ आखिर क्यों नहीं दिखाई देती है? क्या चोर-चोर मौसेरे भाई वाली कहावत यहां भी चरितार्थ होती है? आखिर हमारी संसद इन विषयों पर स्पष्ट और पारदर्शी कानून क्यों नहीं बनाती है? हमारे देश में संसद सर्वोच्च है या सुप्रीम कोर्ट, यह विषय महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह चर्चा समीचीन है कि विधायिका या न्यायपालिका में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन भ्रष्ट आचरण वाले व्यक्तियों के खिलाफ आम आदमी की तरह नहीं बल्कि खास आदमी की तरह विलंबित कार्रवाई आखिर क्यों होनी चाहिए? चूंकि विधायिका और न्यायपालिका दोनों ने अपनी सर्वोच्च स्थिति का दुरूपयोग किया है, इसलिए लोकहित या व्यवस्था हित वाले रेयर ऑफ द रेयररेस्ट मामलों में विद्वत परिषद या जनमत सर्वेक्षण के माध्यम से किसी अंतिम निर्णय पर पहुंचने की वैधानिक व्यवस्था होनी चाहिए।इस लिहाज से सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बी आर गवई ने मुख्य न्यायाधीश ग्रेट ब्रिटेन में वहां के सुप्रीम कोर्ट द्वारा आयोजित एक गोलमेज सम्मेलन में 'न्यायिक वैधता और सार्वजनिक विश्वास बनाए रखने के' विषय पर जो बातें कही हैं, उनपर गौर फरमाना हर प्रबुद्ध व्यक्ति के लिए लाजिमी है। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा है कि ज्यूडिशियरी में करप्शन और मिसकण्डक्ट से न्यायपालिका पर लोगों का भरोसा कम होता है। इसलिए उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि ज्यूडिशियरी को केवल न्याय नहीं करना है, बल्कि उसे एक संस्थान के रूप में भी देखा जाना चाहिए जो सत्ता से सच कहने की क्षमता रखता है।कहना न होगा कि जहां एक ओर भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाने में न्यायपालिका का महत्वपूर्ण स्थान है, वहीं दूसरी ओर लोकतंत्र की जड़ों को खोखली करने में भी न्यायपालिका की प्रत्यक्ष/परोक्ष भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। यह बात मैं नहीं कह रहा हूँ बल्कि इस देश में चल रहे विभिन्न न्यायिक घटनाक्रमों का सार-सत्य कुछ ऐसा ही है, जो चिंताजनक बात है।देखा जाए तो सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी आर गवई ने अपने लहजे में न्यायपालिका की बड़ाई और शिकायत दोनों करते हुए परोक्ष रूप से न्यायाधीशों, नौकरशाहों व राजनेताओं के लिए कुछ लक्ष्मण रेखा खींचने की कोशिश करते हुए उन्हें कतिपय नसीहतें भी दी हैं, जिन्हें समझे जाने और उसके दृष्टिगत सर्वश्रेष्ठ समाधान निकाले जाने की जरूरत है।भारत के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने जजों की नियुक्ति पर महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा है कि सरकार ने दो बार सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों को नजरअंदाज किया क्योंकि उस समय अंतिम निर्णय सरकार का था। यही वजह है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश ने न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका की भूमिका पर सवाल उठाते हुए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए खतरा बताया और कहा कि इससे जजों की स्वतंत्रता पर आंच आ सकती है।दरअसल, उक्त गोलमेज सम्मेलन में जस्टिस विक्रम नाथ, इंग्लैंड और वेल्स की लेडी चीफ जस्टिस बैरोनेस कैर और यूके के सुप्रीम कोर्ट के जज जॉर्ज लेगट की मौजूदगी में भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि, 'भारत में, न्यायपालिका व कार्यपालिका के बीच विवाद का एक मुख्य मुद्दा यह रहा है कि न्यायिक नियुक्तियों में प्राथमिकता किसकी है? उन्होंने कहा कि 1993 तक, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति में अंतिम निर्णय कार्यपालिका का होता था। यही वजह है कि उक्त अवधि के दौरान, भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में कार्यपालिका ने दो बार जजों के फैसले को अनदेखा किया, जो स्थापित परंपरा के विरुद्ध था।'उल्लेखनीय है कि सीजेआई पद के लिए जिन दो जजों को दरकिनार किया गया है, वे हैं जस्टिस सैयद जाफर इमाम और जस्टिस हंस राज खन्ना। जहां जस्टिस इमाम को 1964 में शीर्ष पद नहीं सौंपा जा सका था क्योंकि वे स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से पीड़ित थे और तत्कालीन जवाहरलाल नेहरू सरकार ने जस्टिस पीबी गजेंद्रगढ़कर को यह पद सौंपा था। वहीं, न्यायमूर्ति खन्ना को 1977 में इंदिरा गांधी सरकार की नाराजगी का सामना करना पड़ा था। क्योंकि जब एडीएम जबलपुर बनाम शिव कांत शुक्ला मामले में उनके असहमति वाले फैसले के कुछ महीनों बाद ही उन्हें चीफ जस्टिस का पद खोना पड़ा था। क्योंकि उस मामले में उन्होंने फैसला सुनाया था कि राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान भी मौलिक अधिकारों को निलंबित नहीं किया जा सकता है। यही बात इंदिरा गांधी सरकार को नागवार गुजरी थी।सीजेआई के मुताबिक, इसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने साल 1993 और 1998 के अपने फैसलों में जजों की नियुक्ति से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या की और स्थापित किया कि भारत के चीफ जस्टिस, चार सीनियर जजों के साथ मिलकर एक कॉलेजियम का गठन करेंगे, जो सुप्रीम कोर्ट में नियुक्तियों की सिफारिश करने के लिए जिम्मेदार होगा। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति गवई ने आगे कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को रद्द कर दिया था।

Jun 12, 2025 - 23:17
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भारतीय न्यायपालिका की स्वतंत्रता का बेजा इस्तेमाल के लिए दोषी कौन?
भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका की स्वतंत्रता अक्षुण्ण रखने के लिए जजों का स्वतंत्र रहना बहुत जरूरी है। लेकिन प्रतिष्ठित पदों पर रहते हुए कतिपय जजों ने जो कुछ कारनामें किए हैं, उसके दृष्टिगत न्यायपालिका में मूलभूत बदलाव नहीं करना जनतंत्र के लिए भी अहितकर साबित हो रहा है। इसलिए यक्ष प्रश्न है कि भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का बेजा इस्तेमाल के लिए आखिर में दोषी कौन है? और उसके खिलाफ त्वरित कार्रवाई करने, करवाने में न्यायिक प्रशासन या फिर कार्यपालक प्रशासन के हाथपांव क्यों फूलने लगते हैं? यदि पुरानी बातें छोड़ भी दें तो जस्टिस जे एस वर्मा के खिलाफ जितनी मंथर गति से कार्रवाई चल रही है, वह पूरी संवैधानिक व्यवस्था के लिए गम्भीर चिंता की बात है। इससे भ्रष्टाचार के संलिप्त लोगों को बढ़ावा मिलेगा।

सुलगता सवाल है कि किसी भी मामले में जितनी ततपरता पूर्वक आम आदमी के खिलाफ कार्रवाई होती है, उतनी ही ततपरतापूर्वक कार्रवाई किसी खास आदमी के खिलाफ आखिर क्यों नहीं दिखाई देती है? क्या चोर-चोर मौसेरे भाई वाली कहावत यहां भी चरितार्थ होती है? आखिर हमारी संसद इन विषयों पर स्पष्ट और पारदर्शी कानून क्यों नहीं बनाती है? हमारे देश में संसद सर्वोच्च है या सुप्रीम कोर्ट, यह विषय महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह चर्चा समीचीन है कि विधायिका या न्यायपालिका में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन भ्रष्ट आचरण वाले व्यक्तियों के खिलाफ आम आदमी की तरह नहीं बल्कि खास आदमी की तरह विलंबित कार्रवाई आखिर क्यों होनी चाहिए? 

चूंकि विधायिका और न्यायपालिका दोनों ने अपनी सर्वोच्च स्थिति का दुरूपयोग किया है, इसलिए लोकहित या व्यवस्था हित वाले रेयर ऑफ द रेयररेस्ट मामलों में विद्वत परिषद या जनमत सर्वेक्षण के माध्यम से किसी अंतिम निर्णय पर पहुंचने की वैधानिक व्यवस्था होनी चाहिए।

इस लिहाज से सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बी आर गवई ने मुख्य न्यायाधीश ग्रेट ब्रिटेन में वहां के सुप्रीम कोर्ट द्वारा आयोजित एक गोलमेज सम्मेलन में 'न्यायिक वैधता और सार्वजनिक विश्वास बनाए रखने के' विषय पर जो बातें कही हैं, उनपर गौर फरमाना हर प्रबुद्ध व्यक्ति के लिए लाजिमी है। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा है कि ज्यूडिशियरी में करप्शन और मिसकण्डक्ट से न्यायपालिका पर लोगों का भरोसा कम होता है। इसलिए उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि ज्यूडिशियरी को केवल न्याय नहीं करना है, बल्कि उसे एक संस्थान के रूप में भी देखा जाना चाहिए जो सत्ता से सच कहने की क्षमता रखता है।

कहना न होगा कि जहां एक ओर भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाने में न्यायपालिका का महत्वपूर्ण स्थान है, वहीं दूसरी ओर लोकतंत्र की जड़ों को खोखली करने में भी न्यायपालिका की प्रत्यक्ष/परोक्ष भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। यह बात मैं नहीं कह रहा हूँ बल्कि इस देश में चल रहे विभिन्न न्यायिक घटनाक्रमों का सार-सत्य कुछ ऐसा ही है, जो चिंताजनक बात है।

देखा जाए तो सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी आर गवई ने अपने लहजे में न्यायपालिका की बड़ाई और शिकायत दोनों करते हुए परोक्ष रूप से न्यायाधीशों, नौकरशाहों व राजनेताओं के लिए कुछ लक्ष्मण रेखा खींचने की कोशिश करते हुए उन्हें कतिपय नसीहतें भी दी हैं, जिन्हें समझे जाने और उसके दृष्टिगत सर्वश्रेष्ठ समाधान निकाले जाने की जरूरत है।

भारत के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने जजों की नियुक्ति पर महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा है कि सरकार ने दो बार सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों को नजरअंदाज किया क्योंकि उस समय अंतिम निर्णय सरकार का था। यही वजह है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश ने न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका की भूमिका पर सवाल उठाते हुए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए खतरा बताया और कहा कि इससे जजों की स्वतंत्रता पर आंच आ सकती है।

दरअसल, उक्त गोलमेज सम्मेलन में जस्टिस विक्रम नाथ, इंग्लैंड और वेल्स की लेडी चीफ जस्टिस बैरोनेस कैर और यूके के सुप्रीम कोर्ट के जज जॉर्ज लेगट की मौजूदगी में भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि, 'भारत में, न्यायपालिका व कार्यपालिका के बीच विवाद का एक मुख्य मुद्दा यह रहा है कि न्यायिक नियुक्तियों में प्राथमिकता किसकी है? उन्होंने कहा कि 1993 तक, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति में अंतिम निर्णय कार्यपालिका का होता था। यही वजह है कि उक्त अवधि के दौरान, भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में कार्यपालिका ने दो बार जजों के फैसले को अनदेखा किया, जो स्थापित परंपरा के विरुद्ध था।'

उल्लेखनीय है कि सीजेआई पद के लिए जिन दो जजों को दरकिनार किया गया है, वे हैं जस्टिस सैयद जाफर इमाम और जस्टिस हंस राज खन्ना। जहां जस्टिस इमाम को 1964 में शीर्ष पद नहीं सौंपा जा सका था क्योंकि वे स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से पीड़ित थे और तत्कालीन जवाहरलाल नेहरू सरकार ने जस्टिस पीबी गजेंद्रगढ़कर को यह पद सौंपा था। वहीं, न्यायमूर्ति खन्ना को 1977 में इंदिरा गांधी सरकार की नाराजगी का सामना करना पड़ा था। क्योंकि जब एडीएम जबलपुर बनाम शिव कांत शुक्ला मामले में उनके असहमति वाले फैसले के कुछ महीनों बाद ही उन्हें चीफ जस्टिस का पद खोना पड़ा था। क्योंकि उस मामले में उन्होंने फैसला सुनाया था कि राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान भी मौलिक अधिकारों को निलंबित नहीं किया जा सकता है। यही बात इंदिरा गांधी सरकार को नागवार गुजरी थी।

सीजेआई के मुताबिक, इसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने साल 1993 और 1998 के अपने फैसलों में जजों की नियुक्ति से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या की और स्थापित किया कि भारत के चीफ जस्टिस, चार सीनियर जजों के साथ मिलकर एक कॉलेजियम का गठन करेंगे, जो सुप्रीम कोर्ट में नियुक्तियों की सिफारिश करने के लिए जिम्मेदार होगा। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति गवई ने आगे कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को रद्द कर दिया था। क्योंकि इस अधिनियम ने न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका को प्राथमिकता देकर न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर किया है। उन्होंने यहां तक कह दिया कि कॉलेजियम प्रणाली की आलोचना हो सकती है, लेकिन कोई भी समाधान न्यायिक स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं आना चाहिए।

वहीं मुख्य न्यायाधीश जस्टिस गवई ने कहा कि किसी न्यायाधीश द्वारा सरकारी पद ग्रहण करना, या त्यागपत्र देकर चुनाव लड़ना नैतिक चिंताएं पैदा करता है। भारत में जजों के लिए एक निश्चित रिटायरमेंट उम्र होती है। यदि कोई जज रिटायरमेंट के तुरंत बाद सरकार के साथ कोई अन्य नियुक्ति लेता है, या चुनाव लड़ने के लिए पीठ से इस्तीफा देता है, तो यह महत्वपूर्ण नैतिक चिंताएं पैदा करता है और सार्वजनिक जांच को आमंत्रित करता है। क्योंकि तब लोगों को लगने लगता है कि न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं है। उन्हें लगता है कि जज सरकार से फायदा लेने की कोशिश कर रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि कॉलेजियम सिस्टम को लेकर अक्सर सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच तकरार होती आई है। इस बीच सीजेआई जस्टिस बीआर गवई ने अंग्रेजों की धरती से जजों की नियुक्ति को लेकर जो अहम टिप्पणी की है, उसके न्यायिक मायने तो स्पष्ट हैं, लेकिन न्यायिक भ्रष्टाचार को रोकने के लिए उन्होंने क्या-क्या कदम उठाये हैं, इस पर भी गौर करना जरूरी है। हालांकि चीफ जस्टिस बीआर गवई ने नेहरू और इंदिरा गांधी का नाम लेकर कांग्रेस की गलतियों को जो याद दिलाया है, वह शायद भाजपा को खुश करने की एक सार्थक पहल हो सकती है। वहीं साथ ही साथ उन्होंने जजों को भी नसीहत देते हुए कहा है कि जजों को हर हाल में स्वतंत्र रहना चाहिए। 

इसलिए बेहतर यही होगा कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस गवई न्यायिक जांच पुलिस कैडर का गठन करने का आदेश दें, जो न्यायपालिका के भ्रष्टाचार पर पेशेवर तौर पर नजर रखेगी और किसी भी भ्रष्टाचारी को 24 घण्टे के भीतर गिरफ्तार करके खास जेल में डालकर विधिक कार्रवाई शुरू करेगी। आप मानें या न मानें, निचली अदालतों, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश व अधिवक्ताओं की मिलीभगत से संस्थागत भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिससे न्यायपालिका की प्रतिष्ठा गिरी है व विश्वसनीयता कम हुई है। इसे रोकने में कार्यपालिका व विधायिका की दिलचस्पी इसलिए नहीं है कि ये खुद ही महाभ्रष्ट हैं! अपवाद हरेक जगह पर हैं, लेकिन अल्पमत में, बेहद कम।